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समाता
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जिसमें लाख रूपया कमानकी योग्यता है उसके विषयमें यह कहा जाय कि इसमें लाख रुपया कमानेकी योग्यता है किन्तु इसमें मौ रुपया क्रमानेकी योग्यता नहीं है ता वेसा कहना युक्तियुक्त नही है । अतः शिवभूतिमुनिमें द्रव्यश्रत प्राप्त करनेको योग्यता नही थी इसलिये वह द्रव्यश्रु त प्राप्त नहीं कर सका किन्तु उसमें केवल ज्ञान प्राप्तकरनेकी योग्यता थी इसलिये उसने कवलज्ञान प्राप्त करलिया ऐसा कहना आगम युक्ति और न्याय बाधित है ।
योग्यताके सम्बन्धम कहीं पर तो आप दैवका अर्थ योग्यता करते हैं तो कहीं पर कार्य निष्पत्तिकी सामर्थ्य रूप उपादानको शक्तिको योग्यता फरमाते हैं, सो दैव तो पर है अत: परका तो उपादानको योग्यताके साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धके अतिरिक्त
और कुछ भी नहीं है । फिर देव ( कर्म ) का अर्थ योग्यता करना कैसा ? क्या कर्मको योग्यता ही जीवके उपादान की योग्यता है। यदि है तो स्पष्ट करें ? यदि नही है तो फिर निःप्रयोजन ऐसी असंगत वात लिखनेकी जरूरत क्या थी। ___ "यहांपर यद्यपि दैवका अर्थ योग्यसा और पुरुषार्थ का अर्थ अपना वल वीर्य करके उक्त श्लोकका अर्थ उपादानपरक भी होसकता है पर इस प्रकरणका प्रयोजन आगममें निमित्तको स्वीकार किया है यह दिखलाना मात्र है "
जैनतत्त्वमीमांसा पृष्ठ ३७ . यदि यह कहा जाय कि कर्मों के निमित्त से जीवकी जो अवस्था होती है उसीका नाम योग्यता है इसी कारण कारणमें कार्यका उपचार कर दैवका अर्थ योग्यता किया है तो कथंचित ठीक है । जोवके साथ तो ऐसा घटित हो सकता है परन्तु पुद्गल के साथ यह घटित नहीं होता क्योंकि उसके साथ देव ( कर्म ) का कोई
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