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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २२६ जैन तत्त्व मीमांसा की "निमित्त अकिंचितकर है फिरभी सम्यग्ज्ञान प्राप्त करनेवालेको निमित्त कैसा होता है वह जानना चाहिये । आत्माका अपूर्व ज्ञान प्राप्त करनेवाले जीवको सामने निमित्तरूपसे ज्ञानी ही होते हैं। वहां सम्यग्ज्ञानरूप परिणमित सामने वाले ज्ञानीका आत्मा अन्तरङ्ग निमित्त हैं और उन ज्ञानीकी वाणी बाह्य निमित्त है " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञानस्वभाव और ज्ञेयस्वभाव के पृष्ठ २६० कानजी एक तरफ तो कहते हैं कि गुरुके निमित्तसे श्रद्धा सम्यक्त्व नहीं होता (वस्तु विप्र ) दूसरी तरफ कहते हैं कि "आत्माका अपूर्ण ज्ञान प्राप्त करनेवाले जीवको सामने निमिरूपसे ज्ञानी ही होते हैं" यह दुण्डप डी बात कैसी "मेरी मा और वांझ" खैर इस कथन से यह भी पता चल जाता है कि वे कितने ज्ञानी है जिसकी पीठ हमारे सिद्धान्तशास्त्र जैसे विद्वान ठीक रहे हैं क्या सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करनेवालोंके अन्तरंग निमित्तकारण सामनके ज्ञानी होते हैं ? या सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करनेवालक अंत रङ्ग कारण उनका ज्ञानावरणादिकर्मा का क्षयोपशम है ? जिसको इतना भी बोध नहीं है कि दूसरे की आत्मा दूसरे की आत्मा का अंतरङ्गकारण कैसे हो सकती है ? अंतरङ्ग कारण तो स्वका स्व ही होगा दूसरा नहीं, दूसरा तो वाह्य निमित्त कारण ही होगा। यदि ऐसा न माना जायगा तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कर्ता मानना पड़ेगा जो होता नहीं । अतः ऐसी भयंकर गलती करने वाला व्यक्ति ज्ञानी गुरु कहलाये और उसके पीछे शास्त्री विद्वान लोग नांचे, हरे कलिकाल ! जो तू न कर राजरे सो सव थोडा है । For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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