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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की क्या यह कथन मिथ्या है ? यदि नहीं नो फिर क्रमबद्ध की बात सत्य कैसी ? इस कथनसे स्पष्ट मिद्ध होजाता है कि भगवान ने अपने ज्ञानमें पदार्थाका परिणमन क्रमवद्ध एवं अक्रमवद्ध दोनू रूपमें देखा है। श्रर्थात् सिद्ध जीवोंका परिणमन पर निरपेक्ष होनेसे कथंचित् क्रमबद्ध भी है। किन्तु संसारी जावों का परिणमन पर सापेक्ष होनेस अक्रमबद्ध ही होता है इसी कारण भगवानने तपादिकके द्वारा कर्माको खिपा कर सदा सुखा रहनेका जोवोंको उपदेश दिया है । यदि संसारी जीवोंकी भी क्रमवद्ध पर्याय मान ली जाय तो फिर उपरोक्त भगवानकी वाणी मिथ्या ही सिद्ध होगा और काँकी जदीर्णा, कर्मोंका संक्रमण उत्कर्षण अपकर्षण आदि भी मिथ्या ही सिद्ध होगा एक निकाचित भेद ही सही माना जायगा । वह जिस रूपमें वधा है वह उसी रूपमें उदयमें श्राकर फल देता है । उसमें कमी वेशी नहीं होती। किन्तु इसक सिवाय दूसरी तरह से बन्ध किये हुये कौकी अविपाक निर्जरा भी की जा सकती है और उसमें उत्कपण और अपकर्षण भा हा मकते है। जैसे श्रेणिक महाराजने मातवे नर्ककी श्रायुका बन्ध करके क्षायिक मम्यक्त्व के प्रभावसे पहिले नर्कको जघन्य आयु चोरोसी हजार वर्षकी कर डाली। इसी प्रकार खदिरसार भील ने कागले के मांसका न्याग कर प्रतिज्ञा पर दृढ रहा और आखिर संन्यास पूर्वक मरण कर सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ पहिलेके कियेहुये सम्पूर्ण अशुभ कर्मोंका शुभरूप में संक्रमण करदिया । जो अशुभ कर्म नर्कमें दुखरूप उदयमें आते सो वे सब अशुभ कर्म स्वर्गमें सातारूप उदयमें आने लगे। इत्यादिक एक नहीं अनेक आगममें उदाहरण मिलते हैं उनको मन कल्पित मान्यता से मिथ्या (उपचरित) ठहराना सरासर अन्याय है। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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