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समोक्षा
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क्रम नियमित पर्यायकों पुष्टि करने में आपने शास्त्रोंको मिथ्या सिद्ध करनेकी पूरी कोशिस की है जिसका कुछ अंश यहां उद्धरण कर पाठकों के समक्ष रखते है जिससे सिद्धान्तशास्त्रीजी के अभिप्राय का अनायास पता चल जावेगा एक असत्य वात को सत्य सिद्ध करने में एक सौ असत्य बात कहनी पडती हैं तो भी वह सत्य नहीं हो सकती। आपका कहना है कि स्कूल में पढनेवाले छात्रों को सब क्लास में समानरूपसे सव सामग्री मिलती है गुरू भी सब को एक समान मनोयोग देकर पढाता है फिर भी पढनेवाले छात्र समानरूपसे पास नही होते इसमें ज्ञानावरणी कर्मका क्षयोपशम कारण नहीं है. उसमें कारण है उपादानकी योग्यता ।
देखो जैनतत्त्वममांसा पृष्ठ १५५
"जिस वाह्य साधन सामग्रीको लोकमें कार्योत्पादक कहा जाता है वह सबको सुलभ है और वे पढने में परिश्रम भी करते
| फिर वे एक समान क्यों नहीं पढते | यह कहना कि सबका ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम एकसा नहीं होता इसलिये सव एक समान पढने में समर्थ नहीं होते, ठीक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उसमें भी तो वहीं प्रश्न होता है कि जव सबको एक समान वाह्य सामग्री सुलभ है तब सबका एक समान क्षयोपशम क्यों नहीं होता ? जो लोग वाह्य सामग्रको कार्योत्पादक मानते हैं। उनको अन्तमें इस प्रश्नका ठीक उत्तर प्राप्त करनेकेलिये योग्यता पर ही आना पडता है । तव यही मानना पडता है कि जब योग्यताका पुरुषार्थं द्वारा कार्यरूप परिणत होनेका स्वकाल श्राता है तब उसमें निमित्त होने वाली वाह्य साधन सामग्री भी मिल जाती है ।"
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