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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समोक्षा १६३ क्रम नियमित पर्यायकों पुष्टि करने में आपने शास्त्रोंको मिथ्या सिद्ध करनेकी पूरी कोशिस की है जिसका कुछ अंश यहां उद्धरण कर पाठकों के समक्ष रखते है जिससे सिद्धान्तशास्त्रीजी के अभिप्राय का अनायास पता चल जावेगा एक असत्य वात को सत्य सिद्ध करने में एक सौ असत्य बात कहनी पडती हैं तो भी वह सत्य नहीं हो सकती। आपका कहना है कि स्कूल में पढनेवाले छात्रों को सब क्लास में समानरूपसे सव सामग्री मिलती है गुरू भी सब को एक समान मनोयोग देकर पढाता है फिर भी पढनेवाले छात्र समानरूपसे पास नही होते इसमें ज्ञानावरणी कर्मका क्षयोपशम कारण नहीं है. उसमें कारण है उपादानकी योग्यता । देखो जैनतत्त्वममांसा पृष्ठ १५५ "जिस वाह्य साधन सामग्रीको लोकमें कार्योत्पादक कहा जाता है वह सबको सुलभ है और वे पढने में परिश्रम भी करते | फिर वे एक समान क्यों नहीं पढते | यह कहना कि सबका ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम एकसा नहीं होता इसलिये सव एक समान पढने में समर्थ नहीं होते, ठीक प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उसमें भी तो वहीं प्रश्न होता है कि जव सबको एक समान वाह्य सामग्री सुलभ है तब सबका एक समान क्षयोपशम क्यों नहीं होता ? जो लोग वाह्य सामग्रको कार्योत्पादक मानते हैं। उनको अन्तमें इस प्रश्नका ठीक उत्तर प्राप्त करनेकेलिये योग्यता पर ही आना पडता है । तव यही मानना पडता है कि जब योग्यताका पुरुषार्थं द्वारा कार्यरूप परिणत होनेका स्वकाल श्राता है तब उसमें निमित्त होने वाली वाह्य साधन सामग्री भी मिल जाती है ।" For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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