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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा जघन्य स्थितिते लगाय तीसकोड कोडीसागरपर्यंत ज्ञानावरणकर्मकी स्थिति पूर्ण करें ऐसे ही सर्वमूलकर्म प्रकृति तथा उत्तर कर्मप्रकृतिनका क्रम जानना । ऐसे परिणमते अनन्तकाल वीते तिनिकू भेला किये एक भाव परिवर्तन होय है। ऐसा स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है। "परिणमदि सांण जीवो विविकसाएहिं द्विदि णिभित्तेि अणुभागणिमिचेहि पवतो भावसंसारो " ७१ अर्थात् विविधप्रकारकी कषाय के निमित्तसे स्थितिबन्ध तथा अनुभागबंध करता हुआ सेन पंचेन्द्रियजीव भाव संसार को किम्प्र कार पूर्ण करता है उसका स्पष्टीकरण ऊपर में किया गया है । कथन वढ जानेके भय से पांचों परिवर्तनों का स्वरूप नहीं लिखा गया है किन्तु उनका स्वरूप समझ लेनेसे संसार के स्वरूपका ज्ञान अच्छी तरह होजाता है । २१६ अर्थात ज्ञानावरणकमके क्षयोपशमसे लब्धिरूप पांचों इन्द्रियों के द्वारा एक साथ जाननेका योग्यता प्राप्त होनेपर भी एक समय में उपयोग जिस पदार्थ उपयुक्त होता है उसी को जानता अन्यको उस समय अन्य इन्द्रियके द्वारा नहीं जान सकता क्योंकि ऐसी ही क्षयोपशमज्ञान की उपयोगरूप प्रवृत्ति है । इस विषय में स्वः पं० टोडरमलजीने दृष्टान्त द्वारा अच्छी तरह स्पष्ट किया है | For Private And Personal Use Only मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ ५१. जैसे काढू पुरुषके बहुत ग्रामनिविष वमन करने की शक्ति ( योग्यता ) है । बहुरि ताकी काढूने रोक्या अर यह कहा -- पाच ग्रामविषे जावा परन्तु एक दिन विषे एक ही ग्राम विषे
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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