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जैन तत्व मीमांसा की
लगजाय तो जैनधर्मकी रक्षा करनेवाले किसको समझे ! श्रातः आपसे प्रार्थना है कि आप अनुचित स्वार्थका त्यागकर जैनधर्म अनुकूल पदार्थका प्रतिपादन करें जिससे उभय जाबोंका कल्याण
हो।
कर्मको एकस्थितिवन्धक कारण कषायनिके स्थान असंख्यात लोक प्रमाण है । तामें एक स्थितिवन्धस्थानमं अनुभागबन्धकू कारण कषायनिके स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं । तथा योग स्थान हैं ते जगतश्रेणीके असंख्यातवें भाग है । सो यह जोव तिनिकू परिवर्तन करें हैं । कोई सैनी मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीव स्वयोग सर्वजघन्य ज्ञानावरणी कमप्रकृतिका स्थिति अंत: कोटाकोटीसागर प्रमाण वांधे ताक कषायनिके स्थान असंख्यात लोकमात्र हैं। ताम मर्वजवन्यस्थान एकरूप परिण, तामें तिस एकस्थानम अनुभाग वन्धकू कारण स्थान ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण है। तिनमें सू एकसर्वजघन्य रूप परिणमें' तव जगतश्रेणी असंख्यातवे भाग योगस्थान अनुक्रमते पूर्ण करें बीचिमे अन्य योगम्थानरूप परिणमें तो गिनती में नाही ( इसकथनसे क्रमबद्ध पर्याय का अभाव है ) ऐसे योगस्थान पूर्ण भय अनुभागका स्थान दूसरा रूप परिणमें तहां भी तेसेहा योगस्थान मर्व पूर्ण करे तव तास । अनुभा. गस्थान होय तहा मी तेसेही योगस्थान भुगते ऐसे असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागस्थान अनुक्रमते पूर्ण करें तव दूसरा कषायस्थान लना तहा भा तस हा क्रमत असंरूपात लोक प्रमाण अनुभाग स्थान तथा जगतश्रणाके असंख्यातवेभाग योगस्थान पूर्वाक्त क्रमते भुगते तव तीसरा ऋषीय स्थ न लेणा । ऐसे ही चतुर्थादि असंख्यात, लोकप्रमाण कषाय स्थान पूर्वोक्त क्रमते पूर्ण करें । तव एक समय अधिक जघन्य स्थिति स्थान लेना । ताम मा कषाय स्थान अनुभागस्थान योगस्थान पूर्वोक्त क्रमत भुगते ऐसे दोय समय अधिक
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