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समीक्षा
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होत अपने सहज नीचे मारग दरत हैं । तेसे यह चेतन पदार्थ विभातासों गतिजोंनिभेष भवभामर भरत है । सम्यक स्वभाव पाय अनुभौके पंथ धाड़ वन्धकी जुगति भानि मुकति करते है ¦ - कर्ताकर्म क्रियाअधिकार
इस कथन से यह भी सिद्ध होजाता है कि विना निमित्तके जीव स्वमेव शुभरूप या अशुभरूप परिणमन नहीं करता है अतः कर्मो के उदद्यानुसार ही यह जीव शुभाशुभरूप अपनी वैभाविकी शक्तिके द्वारा ही होता है । और कर्मों के अभाव में शुद्ध होता है। यही परमार्थभूत सत्य तत्त्वविवेचन है इसमें हेरफेर करनेकी गुंजायल नहीं है। क्योंकि जोव और पुद्रव में एक वैभाविकी नामकी शक्ति है उसका विभावरूप परिणमन हीं पर निमित्तसे होता है, जहां पर निमित्त दूर हुआ कि उस शक्तिका विभावरूप परिणमन नहीं होकर स्वभावरूप परिणमन होने लगता है । इसीलिये सिद्धों में कर्मनिमित्त हटजाने से उनका सदा स्वभावरूप शुद्ध ही परिणमन होता है। और संसारी जीवोंके कर्म निमित्त बना हुआ है इस कारण उनका विभावरूप शुभाशुभ परिणमन होता रहता है अतः वैभाविकी शक्तिका विभावरूप और स्वभा रूप दोय रूप परिणमन होता है ऐसा जिनागम में कहा है उस शक्तिका विभाव स्वभाव परिणमन वद्ध अवद्ध अवस्था में ही होता है अर्थात अवस्था में विभावरूप और श्रवद्ध अवस्था में स्वभावरूप परिणमन होता है। यदि ऐसा न माना जायगा तो संसार और मुक्त जीaint व्यवस्था ही नहीं बनेगी ।
फिर संसार और मुक्त अवस्था वास्तविक कैसी ? जैसाकि आप मान रहे है ।
जीवक संसार और मुक्त अवस्था है वह वास्तविक हैं इसमें सदह नहीं जब जीवक्री संसार और मुक्त श्रवस्था वास्तविक है,
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