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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा अर्थात् जिन पर्यायोंको परनिरपेक्ष या स्वाधीन स्वाश्रित पर्याय कहा जाता है उनमें भी वास्तवम बाहरी निमित्तोंका उदासीनरूपसे कारण बना हुआ है। उनमें किसी प्रेरक निमित्त कार की अपेक्षा नहीं रहती इसकारण उनको परनिरपेक्ष पर्याय कहाजाता है। किन्तु अशुद्धद्रव्य में यह वात घटित नहीं होती अर्थान् संसारी जीवोंका परिणमन परनिरपेक्ष नहीं होता इस लिये परसापेक्ष जो परिणमन होता है वह शुद्धरूप परिणमन जहाँ होता वह परिणमन विभावरूपसे ही होता है । इस कारण संसारी जीवोंकी संसार पयार्य कर्म सापेक्ष है इसलिये वह पर्याय शुद्धरूप मुक्तपर्याय नहीं कही जाती और मुक्तजीवोंकी मुक्तपर्याय कर्मनिरपेक्ष होने से उनकी फिर कभी भी संसार पर्याय नहीं होती। संसारी जीव कर्मोंसे बन्धा हुआ है इसीलिये अपने असली स्व'भावसे रहित अशुद्ध अवस्थाको धारण किये हुये हैं। और मोहनीय कर्मक निमित्तसे मूछित भी हो रहा है। बद्धो तथा स संसारी स्यादलन्धस्वरूपवान् । मूछितो ऽ नादितोष्टाभि नाद्यावृत्तिकर्मभिः ।। पंचाध्यायी ३४ दूसरा अध्याय अर्थात् जीव और काँका सम्बन्ध अनादिकालसे चला मा यथानादिः स जीवात्मा यथानादिश्च पुद्गल: द्वयोर्यन्धोप्यनादिः स्यात्, सम्बन्धो जीवकर्मणोः ३५ अर्थात् यह जीव भी अनादि है और पुद्गल भी अनादि है इसलिये इन दोनू का सम्बन्धरूप वन्ध भी अनादि है । इसवातको। स्पष्ट करते हुय आचार्य दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हैं। "दुयोरनादिसम्बन्धः कनकोपलसनिमः For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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