________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जैन तत्त्व मीमांसा को .
___अन्यथा दोष एव स्यादितरेतरसंश्रयः ३६। .
अर्थात जीव और कर्मका सम्बन्ध अादि कालसे चला पारहा है । यह सम्बन्ध उसी प्रकारका है जिस प्रकार कनक पाषाणका सम्बन्ध अनादिकालीन है । यदि जीव और पुद्गल कर्मों का सम्बन्ध अनादिसे न माना जायगा तो अन्योन्याश्रय दोष श्राता है । अन्योन्याश्रय दोषका स्पष्टीकरण ।
'तद्यथा यदि निष्का जीवः प्रागेव तादृशः वन्धाभावेथ शुद्धपि बन्धश्चेन्निवृत्तिः कथम् " ३७
अर्थात् यदि जीव पहिले कामरहित शुद्ध मा जायगा तो बन्ध नहीं हो सकता । और यदि शुद्ध होनेपर भी उसके बन्ध मानलि. . याजायगा तो फिर भोक्ष वि.स प्रकार हो सकता है ? क्योकि आत्मा का जो कर्मन्ध होता है वह आत्माका अशुद्ध अवस्था में होता है। इसलिये न्ध होने में अशुद्धता की आवश्यकता है । अतः पूर्वबन्धक विना शुद्ध आत्मामें अशुद्धा नहीं हो सकता । विना बन्धके शुद्ध
आत्मामें भी अशुद्धत. आने लगे ना आत्मा मुक्त हाचुकी है वे भी फिर अशुद्ध होजायगी और अशुद्धहोनेपर त्य भी करती रहेंगी इम हालत में समारी और मुक्त नामें किसी प्रकारका अंतर नहीं रहेगा । इसलिये वन्ध रूप कायक लिये अशुद्धता रूप कारण की आवश्यकता है। और अशुद्धनारूप कार्यके लिये पूवव धरूपकार
की आवश्यक्ता है । इमलिये अशुद्धताम बन्धकी और वध अशुद्धताकी अपेक्षा पडनेसे पूर्व कर्म के बन्धे विना अशुद्धता आ नह सकती अतः जीव कर्मका सम्बन्ध अनादि माननस अन्यान्याश्र. यदोष नहीं आता । दूसरी बात यहभा है कि सादि सम्बन्ध माननस पहले तो शुद्धआत्मामें वन्ध हो नहीं सकता क्योंकि विनाकारण के कार्य होता ही नहीं। भवंति दोपा न गणेऽन्यदीये संतिष्ठमानस्य ममत्ववाजं :
For Private And Personal Use Only