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समीक्षा
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गणाधिनाथस्य ममत्यहानेविना निमित्त न कुतो निवृत्तिः
५८८ मूलाराधना थोड़ी देर के लिये यह भी मानलियाजाय कि विना रागद्वेष रूपकारण के शुद्ध आत्मा भी बन्ध करता है तो फिर विना कारण हानेवाला बन्ध किस तरह रट सकता है ? नहीं छूट सकता।
क्योंकि बिना कारणसे होनेवाले बन्धको दूर करनेका कोई नियमित कारण नहीं है इस अवस्थामें मोक्ष होने का भी कोई निश्चयरूप कारण नहीं है। इमलिये राग द्वेष रूप कारणोंसे बन्ध होता है ऐसा माननेले उन कारणों के हटनेपर वन्ध रूप कार्य भी हट जाता है और आत्मा शुद्ध बन जाती है, फिर उसके बन्ध नहीं होता। क्योंकि पूर्ववन्धक निमित्त विना रागद्वषको उत्पत्ति नहीं होती और रागद्वपके निमित्त विना नर्वन कमवन्ध नहीं होता : जिन्न प्रकार आत्माको सदः शुद्ध माननेमें दोष दिखाया जाचुका है उपी प्रकार पुद्गन को भी सदा शुद्ध माननेमें अनेक दोष आते है इस विषयको पष्ट करतेहुये आचार्य कहते हैं।
"अथ चेत्पुद्गः: शुद्धः सर्वथा प्रागनादितः हतादिना यथा ज्ञान तथा क्रोधादिरात्मनः ३८ पं: अर्थात कोई यह कहै कि पुद्गल अनादिसे सदा शुद्धही है। ऐसा कहनवालाक मतमें आत्माके साथ कर्माका सम्बन्ध भी नहीं बनेगा । फिर तो बिना कारण जिस प्रकार आत्माका - ज्ञानगुण स्वाभाविक है, उसी प्रकार क्रोधादिक भी अात्माके स्वाभाविक गुणही ठहरंगे । वह आत्मासे अलग हो नहीं सकते क्योंकि स्वभावका अभाव नहीं होता, इसलिये पुद्गलको अशुद्धकर्मरूपपर्यायके निमित्तसेही आ मामें क्रोधादिक होते हैं ऐसा माननेसे तो क्रोधादिक आत्माके स्वभाव नहीं ठहरते, नैमित्तिक विभावभाव ठहरेंगे
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