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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ' www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा 做 है जिससे यह जीव इस प्रकारका दुःख सहन कर रहा है और इस दुखको दूर करने का यह उपाय है। उन उपायोंको जान नेमात्र से संसार परिभ्रमणका रोग नष्ट नहीं हो सकता। रोग नष्ट करने के लिये रोग नष्ट करनेवाले उपायोंको करना पड़गा तव ही वह रोग नष्ट हो सकता है अन्यथा नहीं अर्थात् " कायवाङ्मनः कर्म योगः" "स आश्रवः' इसकेद्वारा तो यह जीव कर्मों को आकर्षित करता है और मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायोगा बन्धहेतवः” इसके द्वारा यह जीव अपने प्रदेशों के साथ कर्मोंका बन्धकर दुःखी होता है अर्थात् चारों गतियों के दुःखों को भोगता हुआ भ्रमण करता है इस रोगको मिटाने के लिये सुगुरु कहते हैं कि प्रथम तो जो कर्म आनेका कारण है ( अपथ्य है ) उसको हटावो अर्थात् श्रावका निरोधकर संवरकरो “आनवनिरोधः संवरः" इसके बाद बन्धे हुये कमको नष्ट करने के लिये तपरूपी चारित्रको धारण करो | ऐसा करनेसे तुम्हारा संसार परिभ्रमणका रोग मिट जायगा । तो ऐसा जानलेने मात्र से क्या संसार परिभ्रमण करनेका हमारा रोग नष्ट होजायगा ? कदापि नहीं इस रोगको नष्ट करने के लिये चारित्र धारण करना ही पड़ेगा इसी बातको स्पष्ट करते हुये कुन्दकुन्द स्वामीने ग्यणसार में घोषित किया है कि --wa गाणी खवेड कम्मं गाजवलेोदि सुवोलये अरणासी । विज्जो भेज्जमहं जाणे इदि किं स्सदे वाही || ७२ ॥ अर्थात् ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानवलसे कर्मोंको नष्ट कर देता है ऐसा जो कहता है सो अज्ञानी है मिध्यादृष्टि है क्योंकि विना चारित्र के धारण किये विना केवल ज्ञान वलसे कभी कर्म नष्ट नहीं हो सकता है। जैसा कि रोग और औषधिके जानलेने मात्रसे रोग नष्ट नहीं होता। रोग नष्ट कर देने के लिये औषधिका सेवन For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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