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जैन तत्त्व मीमांसा की
करना पड़ेगा और अपथ्यका सेवन छोड़ना पड़ेगा उसी प्रकार संमार परिभ्रमणका रोग दूर करने के लिये चारित्र धारण करना पडेगा और रोग होनेका कारण मिथ्यात्व अविरतादि कुपथ्य को हटाना पडेगा तव ही संसार परिभ्रमण का रोग इस जीवका नष्ट होसकता है अन्य प्रकारने नहीं फिर व्यवहारका लोप करनेसे परमार्थ की सिद्धि कैसी ? व्यवहारका लोप करनेवाला तो दोनो लोकसे भ्रष्ट ही होगा उसके परमार्थकी सिद्धि तीन काल में कमी नही होगी। परमार्थकी सिद्धि तो व्यवहारके आश्रयसे ही होगी यह अटल सिद्धान्त है इमीलिये आचार्योंने गृहस्थाश्रममें दानधूजादि षट कर्म करने का उपदेश दिया है और मुनिराजोंका घट आवश्यकादि पालन करने का उपदेश दिया है इसका लोप करनेवालोंके परमार्थको सिद्ध होगा या अपरमार्थकी मिद्धि होगी इसके लिये हम क्या कहै इस के लिये तो प्राचार्य स्वयं घोषित करते हैं कि
“मदिसुदिणाणवलेण हु स्वच्छंदं बोल्लइ जिणुत्तमिदि। जो सो होइ कुदिट्ठी ण होइ जिणमग्गलग्गरवो ॥३॥
रयणसारे अर्थात् जो मनुष्य मति श्रुत ज्ञानके घमंडमें आकर श्रोजिनेन्द्र देवके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वोंको अपने मनकल्पित यद्वा तद्वा प्रतिपादन करता है अथवा आगमके सत्यार्थको छिपाकर मिथ्या कहता है वह मिथ्यादृष्टि है। वह जिनधर्मका पालन करता हुआ भी जैनधर्मसे सर्वथा पराङ मुख है जैनधर्मसे बहिभूत मिथ्या:ष्टि है । ऐसा समझना चाहिये ऐसा कुन्दकुन्दस्वामीका कहना है।
आचार्य कहते हैं कि मोक्षरूपी तम् (वृक्ष) के सम्यक्त्वरूपी जड है ( मूल है ) वह निश्चय और व्यवहार स्वरूप है ।
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