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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "सम्मत्तरयणसारं मोक्खमूलमिदि भणियं । तं जाणिज्जइच्छियववहाररूप दोभेद" ||४|| रयणसारे अर्थात मोक्षrरुके निश्चय और व्यवहार दोनों प्रकारके सम्यक्त्व मूल कांग्रे जड़ हैं इन दोनू जडों में से एक व्यवहार asar काट देने से क्या मोहरूपी तक पनप सकता है ? कभी नहीं । मोक्षरुकी एक जड काटने वाला दूसरा जडको भी नष्ट करदेता है । अर्थात् निश्चय सम्यक्त्वको प्राप्ति का कारणभूत देव शास्त्र गुरु हैं क्योंकि श्रद्धा भक्ति रुचि विश्वास के faar for area हो नहीं सकता इसलिये देव शास्त्र गुरुकी श्रद्धारूपी व्यवहार सम्यक्त्वका जो लोप करता है वह निश्चय सम्यक्त्वको भी नही प्राप्त कर सकता। क्योंकि काररणके विना कार्य की सिद्धि कैसी ? इसलिये जो व्यक्ति व्यवहारका लोप कर परमार्थकी सिद्धि चाहता है वह अपने ज्ञानकी प्रखरता में जिनागभके अर्थको अन्यथा प्रतिपादन कर “आप डूवंतो पाडीयों ले डूवो जजमान" वाली कहावत चरितार्थ कर दिखाता है । सम्यकदृष्टि या सम्यक्त्वके सन्मुख वही जीव है जो आगमानुकूल वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन करता है। जो जिनागम को केवली के वचन मानकर उनपर विश्वास करता है। For Private And Personal Use Only १७७ " पुव्वं जिणेहि भरिणयं जहठियं गणहरेहि वित्थरियं । पुव्वइरियक्कमजं तं बोलई जो हु सदिट्ठी " ॥२॥ रयणसारे अर्थात् जिनागमकी रचना केवली भगवानके वचनानुसार गणधर देवने की और उसके बाद द्वादशांगके अनुसार पूर्वाचार्यों ने अनुयोगोंकी रचना की इस अनुक्रमसे चली आई शास्त्रोंकी
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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