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जैन तत्त्व मीमांसा की
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दोरही है उसे भी आचार्यान असद्भूतव्यबहारनयका विषय कहा है । इसका भी कारण यह है कि व्यवहारनय दो भागामें विभक्त होनेसे लौकिकयवहार सभूद्तव्यवहार में तो गर्भित हो नहीं सकते । क्योंकि उसमें अतद्गुणारोप हो नहीं सकता। यदि उसमें अतद्गुणारोप किया जाय तो कई सदभूत रहन सकता इसलिये लौकिक व्यवहार जिस नयाश्रित चल रहा है उसे आचायोने असद्भूतन्यवहारनयम गर्भित किया है फिर भी प्राचार्याने उसे कुनय, नयाभासही कहकर पुकारा है अतः लौकिक नयाभासों के उदाहरण से सुनयको कुनय या नयाभास समझना या ममझाना उचित नहीं है।
इस बात को आप भी स्वीकार करते हैं कि “इसलिये दोनों स्थलों पर उपचार शब्द का व्यवहार किया गया है नत्र इस शब्द साम्यको देखकर उनकी परिगणना एक कोटी में नहीं करनी चाहिये । मोक्षमार्ग में भेद व्यवहार गौण होने से त्यजनीय है । और भिन्न कत कर्म आदि रूप व्यवहार अवास्तविक होने से त्यजनीय है।" जैन तत्त्व मीमांसा पृष्ठ १५ । ___ तथा नय चक्र का प्रमाण देते हुये आप यह भी स्वीकार करते हैं कि “यहां अखण्ड एक वस्तुमें भेद करने को उपचार या न्यबहार कहा है। इसलिये प्रश्न होता है कि क्या प्रत्येक द्रव्य में जो गुण पर्याय भेद परिलक्षित होता है वह वास्तविक नहीं है और यदि वह वास्तविक नहीं है तो प्रत्येक द्रव्य को भेदाभेद स्वभाव क्यों माना गया है और यदि वास्तविक है तो उसे उपचरित नहीं कहना चाहिये । एक ओर तो भेद करने को वास्तविक कहो और दूसरी ओर उसे उपचरित भी मानो ये दोनों बातें नहीं बन सकती । समाधान यह है कि प्रत्येक द्रव्यकी उभय रूप से प्रतीति होती है । इसलिये यह उभय रूप ही है इसमें संदेह नहीं। यदि
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