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समीक्षा
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इस दृष्टि से देखते हैं तो जिस प्रकार वस्तु अखण्ड एक है वह कथन वास्तविक ठहरता है । इसी प्रकार वह गुणगुणी के भेद से भेद रूप है यह कथन भी वास्तविक ही ठहरता है फिर भी यहां पर जो भेद करने को उपचार कहा है मो यह अखण्ड एक वस्तु को प्रतीति में लाने के अभिप्राय से ही कहा गया है। आशय यह कि यह जीव अनादिकाल से भेद को मुख्य मान कर प्रवृत्ति करता आरहा है जिसमें वह संसार का पात्र बना हुआ है । किन्तु यह संसार दुखदाई है ऐसा समझकर उससे निवृत्त होने के लिये उसे भेद को गौण करने के साथ अवेद स्वरूप अखण्ड एक
आत्मा पर अपनी दृष्टि स्थिर करनी है तभी वह संसार बन्धनसे मुक्त हो सकेगा। वर्तमान में इस जीव का यह मुख्य प्रयोजन है
और यही कारण है कि इस प्रयोजन को ध्यान में रखकर इससे मोक्षेच्छुक जीव की दृष्टि को परावृत कराया गया है।" ___आपके कहने का सारांश यह है कि जीव अनादि कालसे भेद को मुख्य मानकर प्रवृत्ति करता आ रहा है अर्थात् भेद रूप ही वस्तु स्वरूप समझता रहा है। किन्तु वस्तु स्वरूप भेद रूप ( खण्ड रूप ) नहीं है वहां अभेद रूप एक अखण्ड द्रव्य है उसमें भेद करना खण्ड करना उसका नाम उपचार है । यह उपचार व्यवहार स्व द्रव्य में ही है इसलिये परमार्थ भूत है । जो व्यवहार भिन्न कर्तृ कर्म आदि रूप है वह वास्तविक व्यवहार नहीं है इसलिये मिथ्या है । जब इस बात को आप मानते हैं तब नैगमादि समीचीन नयों को असमीचीन बतलाने का क्या प्रयोजन है ? किसी भी श्रागम में नैगमादि नयोंको असमीचीन नय मिथ्या नय नहीं कहा है। यदि कहा हो तो बतलाने की कृपा करे । अन्यथा नैगमादि नयों का विषय सम्यक रूप नहीं
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