SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४६ जंन तत्त्व मीमांसा की - - अर्थात् जा कारगते ए अध्यवसान आदि समस्तभाव ते तिनिका उपजावनहारो आठ प्रकार ज्ञानावरणादि कर्म है । सो समस्त ही पुद्गलमय है ऐसे सर्वज्ञका वचन है । तिस कर्मका उदय हदकू पहुंचे ताका फल है सो यह अनाकुलस्वरूप जो सुख नामा आत्मा का स्वभाव ताते विलक्षण है श्राकुलतामय है । ताते दुःख है तिस दुःखके माहिं आय पडे जे अनाकुलता स्वरूप अध्यवसान आदिक भाव ते भी दुख ही है । ताते ते चैतन्य तें अन्वय का विभ्रम उपजावे है तोऊ ते श्रात्माके स्वभाव नाही हैं पुद्गल स्वभाव ही है। सारांश यह हैं कि जिसप्रकार स्त्री पुरुषके निमित्तसे ( सहयोगसे ) पुत्रकी उत्पत्ति होती है उस पुत्रको कोई पिताका पुत्र कहता है तो कोई माताका पुत्र कहता है । उसी प्रकार द्रव्यकर्मके संयोगसे आत्मामें रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है उसको जीवके भाव भी कहा जा सकता है और पुद्गलका भाव भी कहा जा सकता है । क्योंकि दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुआ है । इसलिये दोनोंका कहनेमें यह भ्रम हो जाता है कि एक द्रव्यका दोय कर्ता है । किन्तु वास्तवमें एकद्रव्यका दो कर्ता कभी हुआ न होगा तथा दोय द्रव्य का कर्ता भी एक द्रव्य नहीं होता यह अनादिकालकी मर्यादा है। "एक परिणामके न कर्ता दाब दोय, दोय परिणाम न एक दरव धरत है । एक करतूति दोय दरव कवहूं न कर, दोय करतूति एकद्रव्य न करत है । जीव पुद्गल एक खेत अवगाहि दोऊ अपन अपन रूप कोऊ न टरत है। जड परिणामनिको करता है पुद्गल चिदानन्द चेतनस्वभाव आचरत है। For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy