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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०८ . जैन सत्त्व मीमांसा की अर्थात मल पर्याय से पहले भी काई न कोई पर्याय था इसलिये परपंरा की अपेक्षा सामान्य पर्याय भी नित्य है, द्रव्य की कोई न कोई पर्याय भी सदा रहने वाली है ! अतः यह कथन सतके लक्षण सम्बन्धी है और द्रव्य है सो सतरूप है। "सत् द्रव्यलक्षणम् अर्थात् द्रव्यका लक्षण सत् है, जो सत् है सो ही द्रव्य है यह सामान्य अपेक्षा करि द्रव्यका लक्षण है इसी कारण सर्व द्रव्य सतमयी ही है । तथा सत किसको कहते हैं इसका आचार्य स्पष्टीकरण करते सूत्र कहते हैं। ___ " उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्' अर्थात् उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनो करि युक्त है सो सत् है । तहां चेतन या अचेतन द्रव्यके अपनी जाती कू नहीं छोडनेके निमित्तके वशतें एकभावते अन्यभावकी प्राप्ति होना सो उत्पाद है । जैसे माटीक पिण्डके घट पर्याय होना । तेसे ही पहिले भावका अभाव होना सो व्यय है। जैसे घटकी उत्पत्ति होते पिण्डके आकारका अभाव होना । बहुरि ध्र व का भाव तथा कर्म होय ताकू ध्रौव्य कहिये जैसे माटीका पिण्ड तथा घट आदि अवस्थाविषे माटी है सो ध्रव कहिये । सो ही पिण्डमें था सो ही घटमें है तैसे ऐसे उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनू ही कार युक्त होय सो सत है । ___इहां तर्क-जो युक्त शब्द तो जहां भेद होय तहां देखिय है जैसे दण्डकरि युक्त देवदत्त कहिये। कोई पुरुष होय ताकू दण्डयुक्त कहिये । जो ऐसे तीनि भाव जुदे २ करि युक्त है तो द्रव्यका अभाव आवे है । ताका समाधान--जो यह दोष नाहीं है । जातें अभेदविषे भी कथंचित् भेदनयकी अपेक्षाकरि युक्त शब्द देखिये है। जैसे सारयुक्त स्शंभ है इहां स्थम्भसे सार जुदा For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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