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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६६ : जैन तत्त्व मीमांसा की । ५ । तवार्थसूत्रादि सिद्धान्तनिरूपदार्थान् संक्षेपेण प्ररूप्यते पितजीवादिद्रव्यानुयोगद्वारे ज्ञात्वा रुचि चकार यः स संक्षेपसम्यक्त्वः पुमानुच्यते ६ द्वादशांगश्रवणेन यज्जायते तद्विस्तारसम्यक्त्व प्रतिपाद्यते ७. अंगवाश्रुतक्तात् कुतश्चिदर्थादङ्गवाश्रतं विनावि यत्प्रभवति तत्सम्यक्त्वमर्थसम्यक्त्वं निगद्यते अंगान्यङ्गवाद्यानि च शास्त्राप्यधीत्य यदुत्पद्यते सम्यक्त तदवगाढमुच्यते ६ यत्केवलज्ञानेनार्थानवलोक्य सद्दटर्भवति तस्य परमावगाढसम्यक्त्वं कथ्यते १० | I उपरोक्त सब साधन सम्यक्त्व प्राप्त करने के निमित्तकारण हैं और व्यवहार स्वरूप हैं । इसलिये व्यवहारका लोप करना या मोक्षमार्गका लोप करना एक ही बात है। क्योंकि सम्यग्दर्शनके प्राप्त किये बिना मोक्षमार्ग बनता नहीं और उपरोक्त कारणों के विना सम्यक्त्व प्राप्त होता नहीं । इसलिये व्यवहारका लोप करना या मोक्षमार्गका लोप करना दोनोंमें कोई अंतर नहीं है रोज हम पूजा करते हैं उसमें देव शास्त्र गुरुकी भक्ति करने से सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्रकी प्राप्ति होकर संसारका नाश होता है और मोक्षकी प्राप्ति होतो है ऐसा बतलाया है । जिने भक्तिर्जिने भक्तिर्जिने भक्तिः सदाऽस्तु मे । सम्यक्त्वमेव संसारवारणं मोक्षकारां श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः श्रुते भक्तिः सदाऽस्तु मे । सज्ज्ञानमेव संसारवारणं मोक्षकारणं ॥ For Private And Personal Use Only C
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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