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जैन तत्त्व मीमांसा की
चोथा नयाभास
"अयमपि च नयाभासो भवति मिथोवोध्यवोधसम्बन्धः ज्ञानं ज्ञेयगतं वा ज्ञानगतं ज्ञं यमेतदेव यथा ५८५ पंचा०
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अर्थ- परस्पर ज्ञान और ज्ञेयका जो बोध्य बोधक रूप सम्बन्ध है उसके कारण ज्ञानको ज्ञेयगत ज्ञेयका धर्म मानना अथवा ज्ञ ेय को ज्ञानगत मानना यह भी नयाभास है । अर्थात् ज्ञानका स्वभाव है वह हर एक पदार्थ को जाने परन्तु किसी पदार्थको जानता हुआ भी वह सदा अपने ही स्वरूपमें स्थिर रहता है वह पदार्थ में नहीं चला जाता है । और न वह उसका धर्म ही हो जाता है। तथा न पदार्थका कुछ अंश ही ज्ञानमें आजाता है । जो कोई इसके विरूद्ध मानते हैं वे नयामास मिथ्या ज्ञान से ग्रसित हैं । "सकलवस्तु जग में अस होई वस्तु वस्तुसों मिले न कोई। जीव वस्त जाने जग जेती सोऊ भिन्न रहे सबसेती" ॥ सर्वविशुद्धिद्वार ।
दृष्टान्त
जैसे चन्द्र किरण प्रगट भूमि स्वेत करे भूमिसन होत सदा ज्योतिसी रहत है । तैसे ज्ञानशकति प्रकाश हे उपादेय ज्ञ ेयाकार दीमै वै न ज्ञयको गहत है । शुद्ध वस्तु शुद्धययरूप परिण में सत्ता परमाणमाहि ढाहे न ढड़त है। सो तो और रूप कबहू न होत सर्वथा निश्चय अनादि जिनवाणी यों कहत है।
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"च रूपं पश्यति रूपगतं तन्न चक्षुरेव यथा ।
ज्ञानं ज्ञ ेयमवैति च ज्ञयगतं वा न भवति तज्ज्ञानं " ५८६
श्रर्थ--- जिसप्रकार चक्षु रूपको देखता है परन्तु वह रूपमें चला नहीं जाता अथवा रूपका वह वर्म नहीं होजाता है ।
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