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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६८ जैन तत्त्वमीमांसा की होनेपर भी कभी अंत नहीं होता। जीवों पुद्गलों तथा आकाश प्रदेशोंकी संख्या में तथा सव द्रव्योंके गुण और पर्यायों में ऐसी अनन्तता स्वीकार की गई है। क्षेत्रकी अपेक्षा-लोकके तीन भेद हैं--ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक। इनमें जहां जो व्यवस्था है वह नियत है। उदाहरणार्थ-सोलह कल्प नौग्रेवेयक नोअनुदिश और पांच अनुत्तर विमानोंमें विभक्त है । इसके ऊपर एक पृथ्वी और पृथ्वी के ऊपर लोकान्तमें सिद्ध लोक है । अनादि कालसे यह व्यवस्था इसी प्रकारसे नियत है और अनन्तकाल तक नियत रहेगी। मध्य लोक्में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र है। उनमें जहां कर्मभूमि या भोगभूमिका या दोनोंका जो क्रमनियत है उसीप कार सुनिश्चित है, उसमें परिवर्तन होना संभव नहीं । अधोलोक में रत्नप्रभादि सात पृथिवियां और उनके आश्रयसे सात नों की जो व्यवस्था है वह भी अपवरिर्तनीय है। कालकी अपेक्षा-ऊर्ध्वलोक अधोलोक और मध्यलोक के भोगभूमि सम्बन्धी क्षेत्रोंमें तथा स्वयंभूरमा द्वीपके उत्तरार्ध और स्वयंभूरमण समुद्र में जहां जिस कालकी व्यवस्था है वहां अनादिकालसे उसी कालकी प्रवृत्ति होती आरही है । और अनन्तकाल तक उसी कालकी प्रवृत्ति होती रहेगी। विदेह सम्बन्धी कर्म भूमि क्षेत्र में भी यही नियम जानलेना चाहिये । इसके सिवाय कर्मभूमि सम्बन्धी जो क्षेत्र वचता है, उसमें कल्पकालके अनुसार निरंतर और नियमित ढंगसे उत्सर्पिणी और अवसपिणी कालकी प्रवृत्ति होती रहती है। एक कल्पकाल वीस कोडा कोडी सागरका होता है। उसमें से दस कोडाकोडी सागरकाल उत्सपिणीके लिये सुनिश्चित है। उसमें भी प्रत्येक उत्सपिणी और अवसर्पिणी छः छः कालोंमें विभक्त हैं। उसमें भी जिस For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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