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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा की गुणस्थान मार्गणाका स्वपरभेदविज्ञानका धर्म शुक्लध्यानादिक का ज्ञान होसकता नहीं इसलिये शास्त्रोंका पठन पाठन कार्यकारी है अकिंचित् कर नहीं है । श्रतः शास्त्रोंके पठन पाठनसे ज्ञानकी वृद्धि अवश्य होती है । गुरुदेशनाके बिना कभी अपनी योग्यतासे सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती यह नियम है । क्षयोपशमलब्धि के विना विशुद्धिलब्धि भी नही होती विशुद्धिलब्धिके विना देशनालब्धि नहीं होती तथा देशनालब्धि के बिना प्रायोग्य लब्धि नहीं होती। तथा प्रायोग्यलब्धि के विना कारणलब्धि नहीं होता और करण लब्धिके बिना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती यह नियम है । देखो मोक्षमार्गप्रकाशक ___ "जातें शास्त्रविधै सम्यक्त्व होने के पहिले पंचलब्धि का होना कहा है क्षयोपशमलब्धि विशुद्धिलब्धि देशनालब्धि प्रायोग्य लब्धि करणलाब्ध । तहां जिसको होत गते तत्त्वविचार होय सके ऐसा ज्ञानावरणादि कर्मनिका क्षयोपशम होय । उदयकालको प्राप्त सर्वघाती स्पर्द्ध कनिके निषेकनिके उदयका अभाव सो क्षय अर अनोगतकाल विये उद्य श्राने याग्य तिनिही की सत्ता रूप रहना सो उपशम ऐसी देशवाती स्पर्द्ध कनिका उदय सहित कर्मनिकी अवस्था ताका नाम क्षयोपशम है। तांको प्राप्ति सो क्षयोपशमलब्धि है। बहुरि मोहका मंद उदय आबनेते मंदकपायरूप भाव होय तहां तत्त्वविचार होसके मो विशुद्धिलब्धि है। बहुरि जिनदेवका उपदेश्या तत्त्वका धारण होय विचार होय सो देशनालब्धि है। जहां नकोदिक विषे उपदेश निमित्त न होय तहां पूर्व मस्कारते होय । बहुरि कर्मनिकी पूर्व सत्ता घटकरि अंतः कोटाकोटीसागर प्रमाण रहि जय अर नवीन वन्ध अंतःकोटाकोटी प्रमाण ताके संख्यातवे भागमात्र होय सो भी तिस लब्धिकालते लगाय क्रमतें घटता होय, केतीक पाप प्रकृति For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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