SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४ जैन तत्त्व मीमांसा की wwamremarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr.... ..... .. ... जीवका ही है । परन्तु यह रागद्वेष परिणाम जीवके करके निमितसे होय है इस वातका ज्ञान अज्ञानी जीवको न होनेसे वे गगहषका कर्ता हो जाता है। यह बात सर्वथा असत्य भी नहीं है । क्योंकि ज्ञानकी स्वच्छतामें कर्म के उदय जनित कर्मके गिद्ध परिणाम ज्ञानमें प्रतिबिम्बित होता है अतः ज्ञानका स्वभाव झेगाकार परिणमन करनेका होनेसे ज्ञान ज्ञ य रूप परिणमन होता है जिसको देखकर भेदविज्ञान रहित अज्ञानी जीव निमित्त नैमित्तिक दोनू' अवस्थाको एक मान लेता है बस यहीं अज्ञानी जीवके रागद्वषादिक परिणाम का कर्तापना है । इसी बातको स्पष्ट करते हुये समयसार नाटकमें कहा है। ___ "शुद्धभाव चेतन अशुद्धभाव चेतन दुईको कस्तार जीव और नाहि मानिये । कर्मपिण्डको विलास वर्मा रस गंध फास कर्तार दुहुँको पुद्गल पखानिये जाते वरणादि गुण ज्ञानावरणादि कर्म नाना परकार पुद्गलरूप जानिये समल विमल परिणाम जे जे चेतनके ते ते सब अलख पुरुष यो वखानिये" __अर्थात् अलखपुरुष कहिये अरहंत भगवान कहते हैं कि शुद्धभावोंक। और अशुद्धभावोंका दोनू प्रकारके भावोंका कर्ता जावात्मा हो है दूसरा कोई नहीं है इसलिये समस्त परिणामोंका भी आत्मा कर्ता है ऐसा मानना कोई श्रागमविरुद्ध नहीं है क्योंकि ज्ञानी जीव राग द्वेष का कर्ता है ही ! इस वातका खुलासा ऊपरम किया जाचुका है। संकल्प विकल्पके सिवाय जीवात्मा पुद्गलादि पर पदार्थोका कर्ता नहीं है। गजेंद्र मृगेंद्र गहयो तू छुड़ावै । महा आगते नागते तू बचावै ॥ महावीरतें युद्धमें तू जितावे । महारोगतै बंधतें तू For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy