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समीक्षा
नही है वह महासत्ता भी कैसी ? और उससे स्वरूपास्तित्व का बोध म कैसा? __ जब कि अपनी सत्ता ही अद्वततामें नष्ट होजाती है इसलिये जहां अप'सत्ता स्वीकर की जाती है उसी संग्रहनयद्वारा स्वरूपास्तित्वका बोध होसकता है और उस नयका विषय भी परमार्थ भूत है । इसनयका विषय ज्ञानकं साथ अन्वयरूप चिन्हकरि अनुमानसे सर्व पदार्थोकी सत्ताके आधारभूत सनिका अविशेषकार सत्तारूपसे संग्रह करनेका है । अर्थात् सत्तारूपसे सर्वद्रव्य सतरूप है इसनयसे ऐसा वोध होता है इस वोधसे सर्वपदार्थोकी सत्ता अलग अलग सिद्ध होती है इसलिये इसनयका विषय भी परमार्थभूत है और फलार्थ भी स्वरूपास्तित्वका बोध है । इसीप्र. कार व्यवहारनय का विषय सत्तारूपसे संग्रह किये गये सर्व पदाथामें भेद कर सबकी अलग अलग सत्ता सिद्ध करने का है इसलिये इसनयद्वारा अपनी सत्ता सिद्ध होती है सो परमार्थभूत है । इसीप्रकार सब नयोंपर घटालेना चाहिये । अतः नैगमादि नय सर्व ही सम्यकप है इसको असम्यकप समझना मानना मिथ्यात्व का द्योतक है । इसका कारण यह है कि नैगमादिनय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोय भेदरूप है सो ही निश्चयव्यबहार साधन रूप है : ऐसा नय चक्रमें कहा है कि जो निश्चय व्यवहारनय है ते सर्वनयनिका मूलभेद है। इनि दोय भेदनिते सर्वनय भेद प्रवते हैं । तहां निश्चयके साधनेक कारण द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक दोऊ नय है । वस्तुका स्वरूप द्रव्यपर्यायन्वरूप ही है ताते इन दोऊनयनिते साधिये हैं। तात य दोऊही ( द्रव्याथिक'पर्यायाथिक ) तत्त्वस्वरूप है सत्यार्थ है।
इसलिये इनको असत्यार्थ मानना मिथ्यात्वका ही कारण है तथा श्लोकवार्तिकमें ऐमा कहा है कि जो एवंभूतनय है वह निश्चत्यस्वरूप है। क्योंकि जिमकी जो संज्ञा होय तिस ही क्रिया रूप
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