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जैन तत्त्व मीमांसा की
ऐसा कहते मत् ऐसा वचन करि तथा ज्ञान करि अन्वय रूप जो चिन्ह ता करि अनुमान रूप किया जो सत्ता ताके आधार भूत जे मव वस्तु तिनिका अविशेष करि संग्रह करे जो सर्व ही सत्ता रूप है ऐसे संग्रह नय होय है । तथा द्रव्य ऐसा कहते जो गुण पर्यायनिकरि सहित जीव जीवादिक भेद तथा तिनिके भेद तिनिका सर्वनिका संग्रह होय है तथा घट ऐसा कहते घट का नाम तथा ज्ञान के अन्बय रूप चिन्ह करि अनुमान रूप किये जे समस्त घट तिनिका संग्रह हाय है । ऐसे अन्य भी एक जातिके वस्तुनिक भेला एक कार कहे तहां संग्रह जानना । तहां सत् कहनेते सर्व वस्तु का संग्रह भया ! सो यहु तो शुद्ध द्रव्य कहिये ताका सर्वथा एकान्त मो तो संग्रहाभास है अनय है सो मांख्य तो प्रधान ऐसा कह है । बहुरि व्याकरण वाले शब्दाह तक कहें हैं । वेदान्ती पुरुषाद्वैत कहें हैं । बोधति संवेदनाहुत कहे हैं। सो ये सब नय एकान्त है । बहुरि या नयकू पर संग्रह कहिये । बहुरि द्रव्यम सर्व द्रयनिका संग्रह करे, पर्याय में सर्व पर्यायनिका संग्रह करें । सो अपर संग्रह है। ऐसे ही जीव में सर्व जीवनिका संग्रह करे ! पुद्गल में सर्व पुद्गलनिका संग्रह करे। घट में सर्व घर्शन का संग्रह करे । इत्यादि जानना । मारांश यह है कि इस नय के दा भेद किय-एक. पर संग्रह नय, दूसरा अपर संग्रह नय इन दो भेदों में पर संग्रह नय कुनय है अन्य मतावलम्वीयों द्वारा अद्वैत संग्रह किया गया है इसलिये उनका कहना मिथ्या है। क्यों कि सब पदार्थ ही द्वेत हो है अद्वत नहीं है । यदि सर्व पदार्थ अवत ही होय तो फिर संसार मोक्ष आदि की व्यवस्था ही नहीं बन ग! इमलिये पर सग्रह नय का उदाहरण में महासत्ता को स्वीकार कर अपर ग्रह नव को अपरमार्थ भून ठहराना सर्वथा बागम विन्द्ध है। क्या कि जिन महामत्ता में अमान्तर सत्ता विद्यमान
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