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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा "जिनेच्या पात्रदानादिस्तत्र कालोचितो विधिः । भद्रध्यानं स्मृतं तद्धि गृहधर्माश्रयात् बुधैः " अर्थात् जिनेन्द्र देवकी पूजा करना पात्रदान देना तथा समयानुसार पूजा या दानकी विधि करना भद्रध्यान कहलाता है। ऐसा ध्यान यथोचित गृहस्थधर्म में ही होता है इसीलिये विद्वान लोग इसे धर्मध्यान कहते हैं। क्योंकि भद्रध्यान भी धर्मध्यानमें गर्भित है । यदि ऐसा न माना जायगा तो चौधे पांचवें गुणस्थान चर्तिजोवों के धर्मध्यानका अभाव मानना पडेगा । किन्तु उनके धर्मध्यानका सद्भाव प्राचार्यों ने बतलाया है । देखो सर्वार्थ सिद्धि "तदविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानां भवति ।। ___ यह धर्मध्यान चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवे गुणस्थान तक होता है । यह धर्मध्यान जो चौथे पांचवे गुणस्थानमें होता है वह पंच परमेष्ठीके आश्रयसे ही होता है। अर्थात् दान पूजा स्वाध्याय आदि षट् कर्म करते समय जो गृहस्थोंके एकात्र परिणाम होते हैं उसीको भद्रध्यान भी कहते हैं । अतः भद्रभ्यान भी धर्मध्यान ही है । भद्रध्यान कोई धर्मध्यानसे अलग बस्तु नहीं है । क्योंकि इस भद्रध्यानमें दानपूजादि द्वारा सर्वज्ञ आज्ञाका प्रकाशन होता है और सर्वज्ञाज्ञाका प्रकाशन करना ही श्राज्ञाविचय धर्मध्यान आचार्योंने बतलाया है । देखो सर्वार्थसिद्धि "सर्वज्ञाशाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते " इसलिये यह स्वत: सिद्ध है कि देवपूजा तीर्थयात्रा दान स्वाध्यायादि सब ही कर्म गृहस्थोंके अथवा मुनियोंके आज्ञाविचय धर्मध्यानमें ही गर्भित है। क्योंकि इसमें जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका प्रतिपालन ही होता है । एवं जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका प्रकाशन भी होता है। इसलिये यह For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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