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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॐन तत्त्व मीमांसा की आज्ञाविचय धर्मध्यानके अतिरिक्त अन्य कोई भद्रध्यान नहीं है। अपायविचय विपाकविचय और संस्थान विचय धर्मध्यान भी मविकल्प है मालम्बन सहित है व्यवहार वरूप है क्योंकि न ध्यानों में भी अपने तथा पराये जीवोंके दुख दर व.रने के उपा-- यांका विचार होता है कोंके विषाकसे जीवोंकी क्या क्या अबग्था होती है उसका चिन्तवन किया जाता है तथा कर्मोदयसे यह जीव कहां कहां उत्पन्न होकर कैसे कैसे दुख भोगता है । इत्यादिक विकल्पोंके आश्रय विचारकी धारा प्रवाहित होती है । इसलिये यह सर्व धर्मध्यान व्यवहार स्वरूप है । इन ध्यानोंसे अशुभ काँकी गुणश्रेणी निर्जरा भी होती है। • तथा अपाविचय धर्मध्यानक द्वारा तीर्थकर प्रकृतिका वन्ध कर मोक्षमार्गका प्रकाश भी किया जाता है । इन धर्मध्यानोंमें उत्तम क्षमादि दश धर्मोका सोलह कारण भावनाओंका एवं द्वादश अनुप्रेक्षाका भी चिन्तवन मनन, किया जाता है । वह मव व्यवहार स्वरूप ही है । परमार्थ स्वरूप नहीं है लोभी इनके आश्रयसे आत्म स्वरूपकी प्राप्ति अवश्य होती है । इस व्यवहारके किये विना परमार्थ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं हो सकती । श्राप जो व्यवहारका लोप कर परमार्थकी सिद्धि करना चाहते हैं वह कौन सा परमार्थ है जो व्यवहार धमका लोप करनेसे प्राप्त होता है । जैनागम तो इस वातको स्वीकार नहीं करता। जैनागमका तो यह ऋहना है कि परमार्थस्वरूपका लक्ष बनाकर उसकी प्राप्ति के लिये उद्यम करते रहो जव परमार्थस्वरूपको प्राप्ति होजावेगी तव उद्यमकरने का व्यवहार स्वतः छूट. जावेगा । जबतक परमात्मपदकी प्राप्ति नहीं होती तबतक पुरुषार्थ रूपी व्यवहार करना ही पड़ता है। . इसी वातको स्पष्ट करते हुये आचार्य दृष्टांत द्वारा समझाते For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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