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समोक्षा
"यथा अंधके कंध परि चढे पंगु नर कोय | या हग वाके चरण होय पथिक मिल दोय || जहां ज्ञान क्रिया मिले तहां मोक्षमग सोय || वह जाने पदको मरम वह पदमें थिर होय ।.. देखो समयसारका सर्व विशुद्धि द्वार
जैसे फलका कारण पुष्प है किन्तु फल लगने के वाद पुष्प स्वत: विनम्र होजाता है उसी प्रकार परमार्थपदकी प्राप्तिके
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लिये व्यवहार भी निमित्तकारण है जब परमार्थ पदकी सिद्धि हो जाती है तब व्यवहार स्वतः छूट जाता है । इसके पहिले नहीं अतः व्यवहारका लोप कर जो परमार्थकी सिद्धि चाहते हैं वह महा पंडित होनेपर भी " पढ पढके पंडित भये ज्ञान भया अपार वस्तु स्वरूप समझे नहीं सब कटी का श्रृंगार " इस कहा
के अनुसार वह जैनागम के मर्मज्ञ नहीं हैं । समयसार में व्यवहारको छोडकर केवल निश्चयको ही परमार्थभूत माननेबालोंको भी मिध्यादृष्टि बतलाया है । एवं निश्चयको छोडकर केवल व्यवहार हीं में मग्न हैं उनको भी मिथ्यादृष्टि वतलाया है । यथायोग्य अपने पदस्थके अनुसार व्यवहारका साधन करता रहै परमार्थका लक्ष रक्खे उसीको “स्यादवादका जाननेबाला सम्यग्दृष्टि है " ऐसा कहा हैं ।
"समुझे न ज्ञान कहै कर्म कियेसे मोक्ष, ऐसे जीव विकल मिथ्यातकी गहल में ज्ञान
आत्मा
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अवन्ध सदावर स्वछंदते ह चहलमा यथायोग्य कम करे ममता न घरे रहें सावधान ज्ञान ध्यानकी टहल में । तेई भवसागर के ऊपर है तर जीव जिन्हको निवास