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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा २७३ सर्वकार्यको सिद्धि मानने वाला व्यक्ति सदा सर्वथा पुरुषार्थी ही नहीं होगा। क्योंकि उनकी मान्यतामें तो कोई भी कार्य स्वकाल के विना होगा नहीं फिर वे पुरुषार्थ किसलिये करेंगे ? मनुष्य पुरुषार्थ तो तो करता है जब कि वह यह समझता है कि इस कार्यको मैं कर सकता हूं अन्यथा पुरुषार्थ करने की जरूरत क्या ? आपके सिद्धान्तानुसार कोई भी कार्यस्वकाल के बिना आगे पीछे होनेवाला नहीं फिर उस कार्य के लिये पुरुषार्थ करनेवाला समझदार समझा जावेगा या मूर्ख ? अत: यह बात आपको भी स्वीकार करना पडेगी कि जो कार्य पुरुषार्थ साध्य नहीं स्वकाल साध्य उस कार्य करने में पुरुषार्थ करनेवाला व्यक्ति मूर्ख ही है । आप भी तो छिपे शब्दों में स्वकालमें कार्यकी सिद्धि माननेवालों को निरुद्यमी पुरुषार्थहीन आलसी मानते हैं । " मैं अपन आगे होनेवाली पर्यायोंमें कुछ भी हेरफेर कर सकता हूं इस अहंकार का भी लोप हो जाता है " अर्थात् हार मानकर बैठ जाता है कि इस कार्यको करने में मैं असमर्थ हूं यह कार्य तो मेरे आधीन नहीं है भवितव्यके श्राधीन है ऐसा मानकर वह पुरुषार्थ करनेका अहंकार छोडकर श्रालसी वन जाता है। तथा स्वकाल में कार्यकी सिद्धि मानने वाला व्यक्ति स्व में भी तृव बुद्धिका लोप कर निरुद्यमी वन बैठता है । इसीको आाप वीतरागता समझते हैं तो ठीक है। इसके अतिरिक्त स्वकाल में कार्य सिद्धि माननेवाले व्यक्तियोंको किसी प्रकार की वीतरागता प्राप्त नहीं होती । हाथके कंकणको आरसेकी क्या जरूरत है ? आप और कानजी स्वामी उक्त सिद्धान्तके मानने वाले हैं अतः आप लोगोंको कहतिक वीतरागता प्रगट हुई है सो स्वयं अनुभव करके देखें । वीतरागताकी शुरूआत चौथे गुणस्थान से होती है और वह उत्तरोत्तर पांचवें छठे सातवें आदि गुणस्थानों प्रति For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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