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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ जैन तत्त्व मीमांसा की होता यह वात तो तवहीं बन सकती है जबकि स्वकालका कोई नियम न रहै । जव इस जीवको मोक्ष प्राप्त करनेका साधन ऊंचकुल, वनवृषभनाराच संहनन, चतुर्थकाल, जैनधर्म, जिनदीक्षा, शुक्लध्यान इत्यादि सब निमित्तकारण मिले तब जाकर मोक्षकी प्राप्ति होती है। मोक्ष जानेके साधनमें एक साधन की भी कमी रहजाय तो उसको मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। ऐसे साधन हर एक जीवको नहीं मिलते, ऐसे साधन जिसको मिलते हैं वही मोक्ष जाते हैं । इसमें स्वकालका नियम नहीं है । इसीलिये भट्टाकलंकदेवने मोक्ष जानेमें स्वकालका निषेध किया है वह ऊपरमें उधृत किया जाचुका है। अतः मोक्षजाने में कोई स्वकालका नियम नहीं है । जो स्वकालका नियम मानकर उसकी प्रतीक्षा करते हैं वे अज्ञानी हैं। क्योंकि स्वकाल का नियम माननेवालोंके लिये कोई नियम लागू नहीं पडता उसके लिये तो सर्व अवस्थामें स्वकाल प्राप्त होने पर सव जीव मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । इसलिये मोक्ष प्राप्तिमें स्वकालका नियम मानना सर्वथा जैनागमसे विरुद्ध है। __आपका जो यह कहना है कि " प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है ऐसी यथार्थश्रद्धा होनेपर परका में कुछ भी कर सकता हूं ऐसी कर्तृत्व बुद्धि तो छूट ही जाती है, साथ हीमें अपनी आगे होने वाली पर्यायोंमें कुछभी हेर फेर कर सकता हू इस अहंकार का भी लोप हो जाता है। परकी कर्तृत्वकी बुद्धि छूटकर ज्ञाता दृष्टा वननेके लिये और अपने जीवनमें वीतरागताको प्रकट करनेके लिये इस सिद्धान्तको स्वीकार करनेका वडामारी महत्व है " जैनतत्त्वमीमांसा पृष्ठ ८० __पंडितजी ! या तो आप भूल करते हैं या जान बूझकर(कारण पश) लिखते हैं अन्यथा ऐसी असत्यवातें नहीं लिखते स्वकालमें For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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