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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा बनाया है । जो ज्ञानी समष्टि कहिये समान दृष्टि है जैसा को संसा मानने वाले समझनेवाले हैं उनके लिये तो यह सम्वाद समझने में सरल है । किन्तु जो मिथ्यारष्टि हैं मूर्ख उनकेलिये तो केवल वकवाद ही है दोहाका ऐसा तात्पर्य है। प्रेरक निमित्तवादीकी तरफसे शंका उठा कर आपने जो समाधान किया है वह उस शंकाका समधान नहीं है । किन्तु हर एक स धारणव्यक्तिके समझमें ही नहीं आसकता कि प्रश्नका उत्तर हुअा या नहीं इसढंगसे आपने वाक्यपटुतासे काम लिया है। खेर समीक्षा में सब खुलासा होजायगा। ___"प्रेरक निमित्तवादा कहेगा कि हमारी मान्यताका आशय यह है कि विवक्षित द्रव्यसे कार्य तो उसीके अनुरूप होगा पर हम बह कार्य आगे पीछे हो यह कर सकते हैं । उदाहरणार्थ जो आमका फल १५ दिन बाद पकेगा उसे हम प्रयत्नविशेषसे १५ दिन से पहले पका सकते हैं या जो फल ४ दिनमें नष्ट होनेवाला है उसे हम प्रयत्न विशेषसे चार माहतक रक्षित रख सकते हैं ! यही हम री या अन्य निमित्त की प्रेरता है परन्तु जब प्रेरक बादीके इस कथन पर विचार करते हैं तो इसमें रंचमात्र भी सार प्रतीत नहीं होता क्योंकि जिसप्रशार तिर्यकप्रचयरूपसे उपस्थित द्रव्यका एकप्रदेश उसीके अन्यप्रदेशरूप नहीं हो सकता एक गुण अन्य गुणरूप नहीं होसकता अथवा एक द्रव्य के प्रदेश अन्य द्रव्य के प्रदेशरूप नहीं ममते या एक द्रव्य गुण अन्य द्रव्यके गुणरूप नहां हामकते उमीप्रकार प्रत्येक द्रव्यकी ऊर्ध्वप्रवयरूपसे अवस्थितपर्याय में भी परिवर्तन होना संभव नहीं है । प्रत्येक द्रव्या' द्रव्यपीयें अ र गुगपर्यायें तुल्य हैं। उनमें से जिम पर्याय : जाम : .. है उसके प्राप्तहोने पर ही वह पर्याय होती है " पृष्ठ , जैनतत्त्वमीमांसा । पंडितजी ! जिस शंकाका For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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