________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
जन तत्त्व मीमामा की
का कारण हो तो समो पदार्थों में अतिव्याप्ति दोष उत्पन्न होगा अर्थात् धर्म, अबर्म, आकाश-कान, जीव पुद्गल ये छहों ही द्रन्य एक क्षेत्र में रहते हैं । परन्तु छहोंके लक्षण जुदे जुदे हैं। यदि एक क्षेत्र अवगाह ही एकता का कारण हो तो छहों में अति व्याप्ति दोष नावेगा और उनमें अनेकता भी नहीं रहेगी। "अपि भवति वन्ध्यवन्धकमावो यदि वानयोन शंक्यमिति । तदनकचे नियमात्तद्वन्धस्य स्वतोप्यसिद्ध स्यात् ।। ५७०६०
अर्थ-कदाचित यह कहा जाय कि जीव और शरीर में परस्पर वन्ध्यवन्धक भाव है इसलिये वैसा व्यवहार होता है। ऐसी आशंका भा नहीं करना चाहिय । क्या िवन्ध नियम में अनेक पदार्थों में होता है । एक पदार्थ में अपने आप ही वन्ध का होना असिद्ध ही है। अर्थात् पुद्गल को वान्यनवाला आत्मा है । आत्मा से बन्धने वाला पुद्गल है इसलिये पुद्गत शरीर वक्ष्य है। आत्मा उसका वन्धक है। ऐसा क्य बन्धक सम्बन्ध होने से शरीर में जोव व्यवहार किया जाता है ऐस , आशंका भी निम्ल है। क्योंकि बन्ध तब ही हो सकता है जद कि दो पदार्थ प्रसिद्ध हो वन्ध्यवन्धक में द्वैत ही प्रतीत होता है। "अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित कत्वमस्ति मिथः । न यतः स्वयं स्वतो वा परिणममानस्य किंनिमित्ततया"
५७१ पंचाध्यायी अर्थ-कदाचित मनुष्यादि शरीर में जोवत्व बुद्धिका कारण शरीर और जीवका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो अपने श्राप परिणमन शील है उसके लिये निमित्तपनेसे क्या प्रयोजन है । अर्थात् जीव स्वरूप में निमित्त कारण कुछ नहीं कर सकता। जीव और शरीर में
For Private And Personal Use Only