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जैन तत्त्व मीमांसा की
उत्पाद कहिये । ऐसे व्यथ उत्पाद जानना। . इस कथनसे तो नियतिपर्यायका खंडन ही होता है। समर्थन नहीं ।
आप जो यह कहते हैं कि लड़कों के पास होने न होने में ज्ञानावरणीचकमके क्षयोपशम का कारण नहीं है । तथा प्रात्मा. में केवलज्ञान उत्पत्ति में मोहादि कर्माके क्षयका कारण नहीं है। उनका कारण उनकी योग्यता ही है। किन्तु यह बात जैनागमसे सर्वथा विरुद्ध है-यह कानजी के नवीन मतका पोषण है। आचार्य तो पुगलकी शक्तिका निरूपण करते यह कहते हैं कि-- "कावि अपुव्या दीसदि पुग्गलदम्बस्स एरिसी सत्ती । केवलषाणसहाओ मिणामिदो जाइ जीवस्स । २११
स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थात पुद्गलद्रव्यकी कोई ऐसी अपूर्व शक्ति देखिये है। जो जीवका केवलज्ञान स्वभाव है सो भी जिस शक्तिकार विनश्या जाय है । भावार्थ--अनन्तशक्ति जीवकी है तामें केवलज्ञानकी शक्ति ऐसी है कि जाकी व्यक्ति (प्रकाश) होय तक सर्व पदार्थनिकू एके काल जाने ऐसी व्यक्तिको पुद्गल नष्ट कर है, ना होने दे है । सो यह अपूर्वशक्ति है।
इस कथमसे स्पष्ट सिद्ध होजामा है कि मोपनीय, ज्ञानाव. रणीय, दर्शनावरणीय और अंतरराय ये चारों ही करने जीव की अनन्तशक्तिको नष्ट सी कर रखी है इस कारण जीवमें अनन्तदर्शन अनन्तमान अनन्तवार्य और अनन्तसुखका प्रादुर्भाव ही होता इसीलिये आचार्य समयसारके मोक्षद्वारमें घोषित करते हैं कि
"ज्ञानावरसीके गये जानिये जु है सुसब, दशनावर..
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