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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा .. २८३ "स हि द्रव्यस्य वा स्यात्पयोयम्य वा ? न तावद् द्रव्यस्य नित्यत्वात् । नापि पर्यायस्य द्रव्यरूपेण धोव्यात् । तथाहि-विवादापन्न मण्यादो मलादिपायार्थतया नश्वरमपि द्रव्यार्थतया ध्रुवम् सत्त्वान्यथानुपतेः " इनमें ऐसा कौनसा शब्द है जिसके आधार पर हम यह मान लें कि द्रव्यमें मालामें मोतियोंकी तरह पर्यायें अवस्थित हैं। यहां तो उत्पाद व्यय की सिद्धि में पर्याय को द्रव्यसे सर्वथा भिन्न माननेवालोका खंडन है क्योंकि सर्व वस्तु अन्वय रूपकार द्रव्य है सो ही विशेष करि पर्याय हैं इस लिये विशेषकर द्रव्य भी निरंतर उपजे विनसे है । अर्थात अन्वयरूप पर्यायनि विपे सामान्य भावको द्रव्य कहिय तथा विशेष भावको पर्याय कहिये । अतः विशेष रूपकार द्रव्य भी उत्पाद व्ययरूप होय है क्यों कि पर्याय व्यसे जुदी नहीं होती इसलिये अभेद विवक्षासे द्रव्य ही उपजे विनसे है, भेद विवक्षाते जुदे भी कह सकते हैं । पर ऐसे जुड़े नहीं है जैसे मालाके अंदर मोती जुदे जुदे अवस्थित है। "अण्णइरूवं दव्वं विसेसरूवो हवेइ पज्जावो । . दव्वं पि विसेसेण हि उप्पज्जदि मस्सदे सददं २४० द्रव्यमें उत्पादव्ययका स्वरूप - "पडिसमयं परिणामो, पुच्वो णस्सेदि जायदे अण्णो । वत्थुविणासो पढमो उववादो भएणदे विदिओ २३० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । अर्थात् जो वस्तुका परिणाम समय समय प्रति पहले तो विनसे है अरु अन्य उपजे है सो पहिला परिणामरूप वस्तुका तो नाश है-व्यय है । पर अन्य दूसरा परिणाम उपजा ताकू, For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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