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समोक्षा
चाहिये फिर आपकी आत्मा इ. गन्दी दह में क्यों रुकी हुई है । छापकी आत्मा की स्वतंत्रता कहा गइ ? इसलिय मानना पडेगा कि जीव और पुद्गल ये दोनों ही द्रव्य अपनी वैभाविकी शक्ति के कारण परस्पर में एक के आधीन एक हो रहा है। इस पर।धीनता को छुडाने के लिये ही शास्त्रोंमें अनेक प्रकार के उपाय बताये हैं। अन्यथा स्वतंत्र के लिये स्वतंत्र वनानेका उपाय कहना सव व्यर्थ ठहरेंगे। इसलिये संयोग सम्बन्ध या आधाराधेय भाव सर्वथा कल्पनीक नहीं है, वास्तविक भी है । आचार्यों ने जिस अपेक्षासे जो कथन किया है उस अपेक्षा से वह वास्तविक ही है। उसे दूसरी अपेक्षासे मिथ्या सिद्ध करना आगमको झूठा सिद्ध करना है इसका नाम तत्त्व मीमांसा नही है । पर पदार्थकी अपेक्षा भी आधाराधेय भाव प्रमाण सिद्ध है : पात्र के आधार घृत है । वृक्षके आधार फल पुष्पादि है । यदि ऐसा न माना जायगा तो श्राधेयपदार्थकी दुर्दशा ही होगी जैसे कटोरीके विना घृतकी । वैसी दशा आधार छोडनेवाले सर्व पदार्थोंकी होगी इसलिये कथंचित पदाथ स्वाश्रित भी है कथंचित् पदार्थ पराश्रित भी है तीनों लोक अनादि कालसे तीनों वातवलयोंके आधार पर टिका हुआ है और अनन्त काल ऐसे ही टिका रहेगा तथा वातवलय लोकाकाश के आश्रित ठहरा हुआ है । इसी प्रकार तीनों लोकोंमें रहने वाले धर्म द्रव्य अवर्म द्रव्य काल द्रव्य सर्व द्रव्य लोकाकाश के आश्रित है।
लोकाकाशेऽवगाहः टीका-उक्तानां धर्मादीनां द्रव्याणां लोकाकाशेऽवगाहो, न वहिरित्यर्थः । यदि धर्मादीनां लोकाकाशमाधार,
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