SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्त्व मीमांसा का आकाशस्य के आधारः इति । आकाशस्य नास्त्यन्य आधारः स्वप्रतिष्ठमाकाशम् । यद्याकाशं स्वप्रतिष्ठं धर्मादीन्यपि स्वप्रतिष्ठान्येव । अथ धर्मादीनामन्य आधारः कम्प्यते, आकाशस्याप्यन्य आधारः कल्प्यः । तथा मत्य नवस्था प्रसंग इति चन्नंष दोषः, धर्मादौनि लोकाकाशाम वहिः सन्तीति एतावदत्राधाराधेयकल्पनासाध्यं फलं । ननु च लोके पूर्वोत्तरकारलभाविनामाधाराधेयभावो दृष्टो यथा कुण्डे बदरादीनां । न तथा आकाशम् पूर्वम् । धर्मान्युत्तरकालभावीनि अतो व्यवहारनयापेक्षयाऽपि 'आधाराधेयकल्पनानुपपत्तिरिति । इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि एक आकाश द्रव्य ही स्वप्रतिष्ठित है और सब द्रव्यों में पराश्रित आधाराधेय भाव घटित होता है । वह सर्वथा असत्य काल्पनिक नही है । इसको सर्वथा काल्पनिक असत्य मानना ही असत्य है। संसारी जीव पांचों शरीरों में से दोय, तीन, चार शरारों के आश्रय रहते हैं जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा है तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्न्निाचतुभ्यः ॥४३॥ टीका-तच्छन्दः प्रकृततेजसकामगप्रतिनिदेशार्थः ते लैजसकामणे आदिर्येषां तानि तदादीनि भाज्यानि विकल्पानि । अकुतः ? आचर्तुभ्यः युगपदकस्यात्मनः कस्य For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy