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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समौना चित् द्वं तैजसकार्मणे । अपरस्य त्रीणि औदारिकतैजसकामण नि । वैक्रियिकतै जसकार्मणानि वा अन्यस्य चत्वारि औदारिक आहारक तैजसकार्मणानीति विभागः क्रियते । I मिद्ध भगवान शरीर रहित श्रनादि कालसे अपने अनन्तवल के प्रभाव से अपने हा आधारपर एक ही स्थान पर अवस्थित हैं और इसी प्रकार आगे भी अनन्त काल तक ऐसे ही रहेंगें तो भी वे अधर्म द्रव्यके आश्रय तिष्ठे हुये हैं और सिद्धक्षेत्रके आकाशका आधार लिये हुए हैं। इस बातको कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुमारीजानोंके साथ कर्मोका अनादिसे सम्बन्ध है यह बात असिद्ध नहीं है प्रमाणसिद्ध है क्या इसको कल्पनीक कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता ! "अनादिसम्बन्धे च " टीका - शब्दो विकल्पार्थः अनादिसम्बन्धे सादिसम्बन्धे चेति । कार्यकारणभावसंतस्था अनादिसम्बन्धे विशेषापेक्षया सादिसम्बन्धेऽपि च वीजवृक्षवत् । यथौ - दारिकवैकियिकाहारकाणि जीवस्य कादाचित्कानि, न तथा तेजसकार्मणे, नित्यसम्बन्धिनी हि ते या संसारक्षयात् १२३. For Private And Personal Use Only अर्थात् कर्मका सम्बन्ध जीवके साथ अनादिकालका भी है और सादि भी है वीजवृक्षवन । तैजसकार्मणशरीरका जीव के साथ अनादि सम्बन्ध है जब तक इस जीव की संसार अवस्था रहेंगी तवतक इसका सम्बन्ध भी रहेगा । तथा इसके निमित्तसे नवीन कमौके सम्बन्धका कारण कार्यभार भी बना हुआ हैं । इसको भी
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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