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समीक्षा
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पुण्यारंभकी प्रवृत्ति करनी चाहिये यह सम्यग्ज्ञानका कार्य है इससे धर्मध्यानकी सिद्धि होती है और धर्मध्यान प्राप्त करने में प्रधान कारण है।
"धम्मज्माणब्भासं करेह तिबिहेण जाव सुद्धेपण परमप्पझाण चेतो तेणेव खवेह कम्माणि" ३६
रयणसार अर्थात् जबतक शुक्लध्यान की प्राप्ति न हो तवतक धर्मध्यान का अभ्यास करते रहना चाहिये । जो अाज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, और संस्थानविचय भेदरूप है। ___ वह छठे गुणस्थान तक तो सबिकल्प आलम्बन सहित है क्योंकि यहां तक परमाद अवस्था है अतः प्रमत्त अवस्था में निर्विकल्प ध्यान वनता नहीं इस वातको ऊपर बताया गया है । श्रेणी प्रारोहणके पहिले व्यवहारका ही आलम्बन है । वह छूट नहीं सकता। अतः आचार्य कहते हैं कि
जो निश्चय व्यवहार रत्नत्रय जान नहीं।
सो तप करई अपार मृपा रूप जिनवर कह्यो । "णिच्छय ववहारसरूवं जो रयणत्तयं ण जाणइ सो। जंकीरइ तं मिच्छारूवं सब्वं जिणुदिदै, १२५
रयणसारे अर्थात् निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयको जो नहीं जानता है वह मिथ्याष्ट्रि है और उसका तपश्चरणादि सर्व व्रत नियम मिथ्या - है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है अर्थात् व्यवहार रत्नत्रय के विना
निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती ऐसा जाने विना व्यवहारको ' छोडकर केवल निश्चयकी ( परमार्थ स्वरूपकी) सिद्धि करना जो चाहता है वह अथवा परमार्थके लक्ष विना केवल व्यवहारको ही
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