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जैन तत्त्व मीमांसा की
कहलाता है । नय प्रमाण के ही अंश स्वरूप है । इस प्रकार अंश अंशी रूप होने से प्रमाण के समान नय भी फल महित होता है। सारांश"तस्मादनुपादेयोव्यवहारो तद्गुणे तदारोपः । इष्टफलाभावादिह न नयो वणादिमान् यथाजीवः" ।।
____५६३ पंचाध्यायी अर्थ-जिस वस्तु में जो गुण नहीं है दूसरी वस्तु के गुण उसमें आरोपित-विवक्षित किये जाते है । जहां पर ऐसा व्यवहार किया जाता है वह व्यवहार प्राहा नहीं है । क्योंकि ऐसे व्यवहार से इष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिये जीवको वर्णादि वाला कहना यह नय नहीं है किन्तु नयाभास है। क्योंकि जीव के वर्णादि गुण नहीं है फिर भी उन्है जीव के कहने से जाब
और पुद्गल में एकत्व बुद्धि होने लगती है । यही इष्ट फल की हानि है । इमलिये चाहे सद्भूत व्यवहार नय हो, चाहै असद्भूत व्यवहार नय हो तद्गुणा रोपी ही नय है अन्यथा वह नयामान है। क्रोधादि भाव पुद्गल कर्म के निमित्त से आत्मा के चारित्र गुण का विकार है -इमलिये आत्मा ही के वैभाविक भाव है अतः जीव में उसको आरोपित करना ग्रह अनद् गुमारोप नहीं कहा जा सकता किन्तु तद्गुणारोप ही है। क्रोधादि भाव शुद्ध आत्मा में नहीं है किन्तु पर के निमित्त में होते हैं । इसलिये उन्हें श्रमद्भूत व्यवहार नय का विषय कहा जाता है। __ इस विषय में पंडित फूलचन्द सिद्धान्त शास्त्री जी की या कहना है कि "जो अन्य द्रव्य के गुणों को अन्य द्रव्य के बहता है वह असद्भूत व्यवहार नय है" इसके प्रमाण में खण्ड रूप नय चक्र की गाथा उद्धृत की है वह इस प्रकार है । "अरमि भएणगुणो भगइ मन्द " ..." ०२२ इम विषय में ग्व
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