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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन तत्व मीमासां की तीनों अभिन्न अखण्ड शुद्ध उपयोगकी निश्चल दशा । प्रगटी जहां दृग ज्ञान व्रत ये तीनधा एके लसा" यह अवस्था वारहवें गुणस्थान के अंतको है। इसके पहिले जो अर्थात् वारहवें गुणस्थानके पहले चौथे गुणस्थान तक तो सालम्बन अवस्था ही है अतः सालम्बन अवस्था है वह व्यवहार है इसीलिये पंचास्तिकायकी टीकाकार लिखते हैं कि"व्यवहार नयेन भिन्नसाध्य साधनभावमवलम्व्यानादि भेदवासित बुद्ध यः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ प्राथमिका" गाथा १७२ अर्थात् अनादि कालसे भेदवासित वृद्धि होनेके कारण प्राथमिक जीव व्यवहार नयसे भिन्न साधन साध्य भावका अवलम्बन लेकर सुखसे तीर्थका प्रारंभ करते हैं । यह वात असिद्ध नहीं हैं । प्रथम अवस्था में व्यबहारका शरण तीर्थ के समान है । इस वातको इस व्यवहार की सार्थकता बतलाते हुये पहले प्रगट कर आये हैं । विना व्यवहारके निश्चयकी सिद्धि आज तक किसी के न हुई और न किसी के आगे भी हो सकेगी। इसलिये आप जो यह लिखते हैं कि "जो व्यवहार कथन है वह मूल वस्तुको सपर्श करनेवाला न होनेसे उपचरित है, अभूतार्थ है और कर्ता कर्म आदिकी वास्तविक स्थितिकी विडम्बना करनेवाला है । जो पुरुष व्यवहार कथनका आश्रय कर प्रवृत्ति करते हैं वे शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि में समर्थ नहीं होते अतएव संसारके ही पात्र बने रहते हैं " पृष्ट १४५ ।। ___ यह आपका कथन व्यवहार निर्पेक्ष केवल निश्चय परक है इसलिये मिथ्या है । व्यवहार सापेक्ष कथन ही वस्तुत्व सही और आदरणीय होता है। इसका कारण यह है कि मोक्षमार्गकी शुरुआत चौथे गुणस्थानसे होजाती है और जहां मोक्षमार्ग की शुरु. For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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