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जैन तत्त्व मोमांसा की
राग भगवान किसीको कुछ देते लेते नहीं है फिर ऐसी स्तुति क्यों की ? तो कहना पडेगा कि यह एक स्तोत्र स्तुति करनेकी प्रणाली है जो कारणमें कार्य का उपचार कर कारण को कर्ता ठहरा दिया जाता है । इस प्रणालीको कोई न समझनार ऐसा मान बैठे कि भक्तों पर भगवान खुश होकर उनके दुःख दर्द दूर कर देता है । नो यह उनका समझना गलत है । वे जैनागमके श्राम्नायको ही नहीं समझते हैं । देखो स्व० पं० वृन्दावन कृत दुःखहरणस्तुतिमें क्या लिखते है "काहू को भोगमनोग करो काहू को स्वर्ग विमाना है। काहूको नाग नरेशपती काहूको ऋद्धिनिधाना है। अब मोपर क्यों न कृपा करते यह क्या अन्धेर जमाना है इनसाफ करो मत देर करो सुख वृन्द भयो भगवाना है " एक तरफ तो ऐसा कहते हैं और इस ही तरफ यह कहते हैं कि "यद्यपि तुमारे रागादि नही यह सत्य सर्वथा जाना है। चिन्मूरति आप अनन्तगुनी नित्य शुद्ध दशा शिवथाना है । तद्यपि भक्तनकी भीड हरो सुख देत तिन्है जु सुहाला है । यह शक्ति अचित तुम्हारीका क्या पावे पार सयाना है "
इस से यह सिद्ध होता है कि भगवान तो वीतराग हैं । इसकारण वे तो कुछ देते लेते नहीं है किन्तु वीतराग भगवानके भक्त वीतराग भगवान की स्तुती करते हैं अतः उनकी स्तुती में ( उनके गुणानुवाद) यह शक्ति है कि भक्त जनों के दुःख स्वयमेव दूर होजाते हैं । जैसे पारसको स्पर्श करने मात्रसे लोहा कंचन हो जाता है। उसी प्रकार भगवान के गुणानुवाद करने से अशुभ कर्म झड जाते हैं या वे शुभरूप में परिणत हो जाते है। जैसे वादिराज सूरीके एकीभावस्तोत्रके प्रभावसे कुष्टरोग निमूल नष्ट हो गया । मानतुङ्ग आचार्यके भक्तामर स्तोत्र के द्वारा सव बन्धन टूट गये, इत्यादि । यह सव भगवानकी भक्ति
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