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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३७ समीक्षा "सर्वः प्रक्षति सत्सुखाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् सद्वृत्तात् स च तच्च वाधनियतं सोऽप्यागमात्सश्रुतेः सा चाप्तात् सच सर्वदोषरहितोरागादयस्तेऽप्यतस्तं युतया सविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रिये" सारांश---यह है कि वीतराग भगवान का उपासक अपने आराध्य वीतराग देव का स्तवन स्तोत्रादि करते हुये उनको अपना निकटवर्ती हितैषी मित्र उपकारी मानकर भाव के आवेश में आकर ऐसा कह बैठते हैं कि जो वीतराग भगवान के स्वरूप के अनुरूप नहीं है । इस बातको उपासक जानते हुये भी बीतगग भगवान से सब कुछ मांग बैठते हैं। इसका कारण यही है कि स्तुती स्तोत्रादि करने की प्रणाली ही इस ढंग की है अतः इस पद्धति को समझनेवाले विद्वान तो ईश्वर कर्तृत्व वादी, स्तोत्र स्तुती करने वाले आचार्यादिकों को नहीं मानते । वे जानते हैं कि यह जैनागममें स्तोत्रं स्तुती करने की एक प्रणाली है जो कारण में कार्य का उपचार कर वीतराग भगवान को कर्ता ठहरा दिया जाता है ऐसा न माना जायगा तो समंतभद्राचार्य जैसे तार्किक विद्वान भी स्वयंभू स्तोत्रमें सर्व तीर्थकरों की स्तुती भगवान से अपनी अभीष्ट सिद्ध चाही है । जैसे अजितनाथ भगवान की स्तुती में कहा है कि "जिन श्रियं मे भगवान् विधत्ताम्" अर्थात् हे अजितनाथ भगवान मुझको मुक्ति रूपी लक्ष्मी देहु । । इसी प्रकार सम्भवनाथ स्वामीसे भी प्रार्थना की है कि हे सम्भवनाथस्वामी " ममार्य देयाशिवतातिमुच्चे " अर्थात् मुझको उत्कृष्ट कल्याण परंपरा देखें । इत्यादि सवही तीर्थंकरोंसे प्रार्थनाकी है तो क्या वे समंतभद्र स्वामी इस बात को नहीं जानते थे कि बीत For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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