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जैन तत्त्व मीमांस, की
कर्मोकी निर्जरा होकर अशुभकर्मका फल नष्ट होजाता है । इस हेतुको लेकर ऐसा कहदिया जाता है कि हे भगवान तेरे ही प्रसाद से ऐसा हुआ है, ऐसा कह देनेसे कोई भी स्तोत्र स्तुतीको भगवान को कर्ता नहीं मानता। यदि ऐसा न माना जायगा तो अनेक आचार्योंने कर्तावादका खंडन भी किया है और उपरोक्त शब्दों में कर्ता भी ठहराया है तो क्या यह परस्पर विरोधी वात हैं ? कदापि नहीं देखो कुन्दकुन्द स्वामीने समयसारादि ग्रंथोंम परके कर्तापनेका पूरीतौरसे निषेध भी किया है और वोधपाहुडमें देवके स्वरूपका निरूपण करते हुये बतलाया है कि मनवांच्छित फलको
देवे सो देव । "सो देवो जो अत्थं धर्म काम सुदेइ णाणंच । देवो ववगयमोहो उदयकरोभव्यजीवाणं" २५ ॥ ___टीका–स देवो यो ऽर्थ धनं निधिरत्नादिकं ददाति । धर्म चारित्रलक्षणंवस्तुस्वरूपमात्मोपलब्धिलक्षणमुत्तमक्षमादि दशभेदं सु ददाति । सुष्टु अतिशयेन ददाति । काम अर्धमण्डलिक महामण्डलिक वलदेव वासुदेव चक्रवर्तीन्द्रधरणेन्द्रभोगं तीर्थंकरभोगं च यो ददाति स देवः । सुष्टु ददाति ज्ञानं च केवलंज्योतिः ददाति । स ददाति यस्य पुरुषस्य यद्वस्तु वर्तते असत्कथं दातु समर्थः यस्यार्थो वर्त ते सोऽर्थ ददाति ! यस्य धर्मोवर्तते सधर्मददाति । यस्य. प्रव्रज्या दीक्षा वर्तते स केवलज्ञानहेतूभूतां प्रवज्यां ददाति । यस्य सर्व सुखं वर्तते स सर्व सौख्यं ददाति उक्त च गुणभद्रणगणिना
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