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समीक्षा -
का ही माहात्म्य है । जिसप्रकार मंत्रके द्वारा सर्पादिक का विष दूर हो जाता है उसी प्रकार भगवानकी स्तुती स्तोत्रादि द्वारा सब विघ्न बाधायें दूर हो जाती हैं, यह भगवानके गुणोद्गान में शक्ति है जिस से यह भान होता है कि मानो भगवानने ही हमारे दुःख दूर किये इसलिये ऐसा कहने में आता है कि हे भगवन " तुमारी कृपा से सरे काज मेरे" किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि हम अन्यमतियों की तरह भगवानको कर्ता मानत है सभी पूर्वाचार्योंने ईश्वर कर्तावाद का खण्डन किया है जैसा कि आदिपुराणमें भगवान जिनसेनाचार्यने किया है । उस के आधार पर
" ईश्वर कर्ता हर्ता नाही रक्षक भी नहीं बनता है। सृष्टी रचना है अनादिसे जो नहीं माने जडता है। जिसको समझा कर्ता हर्ता विन पृथ्वी वह रहै कहाँ ? है अमूर्तिक निराधार तो जगत बनाकर रक्खे कहां ? १ ईश अकेला क्या क्या रचता जगता प्रमेय अनन्ता है। अभूतिक से ना जग बनता है विश्व मूर्तिकवंता है । यदि वनता तो कैसे बनता क्या प्रमाण तुम दे सकता ? मूर्तिक से ही मूर्ति बनती यह सिद्धान्त नही टल सकता २ विना उपकरण ईश्वर जगको कैसे कहो, बनाता है ? जो पहिले उपकरण बनाकर फिर कहो जगत बनाता है । तो लन उपकरणों को कैसे विन उपकरण घडाता है। यदि दूजे उपकरणों से तो उनको कैसे रचाता है । ३ इस प्रकार जो होत अवस्था अन अवस्था है उसका नाम । जो अनादि का है वह कारण तो अनादि का क्यों नही धाम । स्वयं सिद्ध भी मानो ईश्वर है अनादि से भी कहते हो । तो क्या वाधा जग अनादि में किसलिये सादि कहते हो ।४
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