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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३८ जैन तत्त्वमीमांसा की "जीवपरिणामहेतु कर्मत्वं पुद्गलाः परिणमति । पुद्गलकर्मनिमित्त' तथैव जीवोपि परिणमति ।। अर्थात् जीवका जो रागद्वेषरूप परिणाम है वह पुद्गल को कर्मरूप परिणमन कराने हेतु है। तथा पुद्गलकर्मके निमित्तसे जीवके रागद्वेषरूप परिणाम होते हैं, ऐसा दोऊके परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, इस परिणमन में एक द्रव्यका गुणधर्म दूसरे द्रव्यमें नहीं जाता यह तो द्रव्यका परिणमन स्वभाव है इसमें एक द्रव्य के गुणधर्म दूसरे धर्म संक्रमण होने की बात कहना वस्तुस्वरूपा विपर्यास करना है। आचार्य कहते हैं कि इस परिण नमें न तो जीवका ही गुण पुद्गल में जाता है और न पुद्गलका जीव ही आता है। किन्तु परस्पर के निमित्त से दोऊका विभावरूप परिणमन होता है। "वि कुव्यदि कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अयोगशिमित्त दू परिणाम जाण दोहणं पि ।। ८७ "नापि करोति कर्म गुणान् जीवः कर्म तथैव जीवगुणान् । अन्योन्यनिमित्तेन तु परिणामं जानीहि द्वयोरपि || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात जीव तो कर्मके गुणको नहीं करे हैं और कर्म है सो जीवके गुणको नहीं करे हैं। अत: इन दोऊनिके परस्पर निमित्त कारणसे एसा परिणाम होय है जैसा कि ऊपरकी गाथामें कहा गया है । श्राचार्य कहते हैं कि पुद्गल कर्मके निमित्तसे आत्मा अपना रागद्वेषरूप परिणाम करता है । तथा पुद्गलकर्मके निमि तसे सुखदुखरूप भाव परिणामोंका वेदन भी स्वयं करता है। अर्थात द्रव्यकर्म के निभितसे आत्मा जिम प्रकार भाव करता उसी प्रकार पुद्गल कर्मोंके निमित्तसे उसके फलको भोगता है । For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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