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जैन तत्व मीमांसा की
कानजीस्वामीको तो जैनसिद्धान्तका रंचमात्र भी बोध नहीं है इसकारण वे अपनी समझके अनुमार सिद्धान्तके विषगमें अंड. घंड भी लिख सकते हैं परन्तु एक जीनसिद्धान्तके ज्ञाता सिद्धान्तशास्त्री विद्वान यदि 'जनतत्व मीमासा' करते समय यह लिखे कि भगवान महावीरम्वामीकी दिव्यध्वनि ६ दिन तक अपनी योग्यतासे नहीं खिरी अथवा भगवानमें लोकान्त तक ही जाने की योग्यता थी इस कारण भगवान लोककं अन्ततक हो जाते है इसमें धर्मास्तिकायके अभावका कारण नहीं है । जो शास्त्राम लिखा है कि "धर्मास्तिकाथाभावात् " अथवा श्रा जयवला में वरिसेन भगवानन जो यह लिखा है कि--
"दिव्वज्झुणीए किमट्ठ तत्थापउत्तो गांणदाभावादो। सोहम्मिदण ततक्खणे चव गणिदो किरण ढाइदा ण काललद्ध ए विणा असहेज्जस्सदविदस्म तड्ढोयणसत्ताएअभावादो" सो सब उ५परित ही है ! उपचारतका आप जा लक्षण करत है वह ऊपर उद्धृत किया जा चुका है तो भी उनक दिय हुयं उदाहरण यहा पर और भी उद्धृत कर देते है जिससे मालुम होजाय कि उपराक्त कथनको आप सही नहीं मानरह है।
"एक द्रव्य अपना विवक्षित पर्याय द्वारा दूसरे द्रव्यका कर्ता है और दूसरे द्रव्यका वह पयोय उसका कम ह” अर्थात् कुम्भकार मिट्टीक घटका का है आर मिट्टाका घटरूप पयाय कुमकारका कर्म है यह दोनू हा वात असत्य है क्योकि मिट्टीस पट बनता है उसमें कुभकारका कुछ भी अंश नहीं मिलता इसलिय घटका कर्ता मिट्टी है कुभकार नहीं। तथा घटरूप पर्याय मिट्टी की है इसलिय मिट्टी का वह घटरूप कर्म है ।
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