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जैन तत्त्व मीमांसा की
कानजीका प्रत्येक वक्तव्य जैनागमके विरुद्ध है उसका आपने जैन तत्त्व मीमांसा में कहीं पर भी खंडन नहीं किया सिवाय मंडन | क्या ज्ञान इन्द्रियोंके द्वारा नहीं जानता यदि नहीं जानता है तो मतिज्ञानका विषय क्या है ?
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" इन्दियजं मदिणा जुग्गं जादि पुग्गलं दबं माणसाच पुणो सुयविषयं अक्खविषयं च स्वामिकार्तिके० गाथा १५८
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अर्थात् इन्द्रियनितें उपज्या जो मतिज्ञान सो अपने योग्य विषय जो पुद्गल द्रव्य ताकू' जाते है। जिस इन्द्रियका जैसा विषय है तैसे ही जान हैं । बहुरि मनसस्वधि ज्ञान है सो विषय कहिये शास्त्रका वचन सु
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तांके अर्थकू' जाने हैं । बहुरि इन्द्रियकर जानिये ताक्रू' भी जाणे है । तथा इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति अनुक्रमसे होती है। इस वातको स्पष्ट करते हुये आचार्य कहते हैं।
"पंचेंद्रियाणां मज्भे एगं च होदि उवजुतं । मखणाणे उवजुते इन्दियग्णां ग जाएदि || १५६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
अर्थात् पांचों ही इन्द्रिय कारे ज्ञान होय है सांतिनि में सू' एकेन्द्रिय द्वार करि ज्ञान उपयुक्त होय है। पाँचू ही एककाल उपयुक्त होय नाहीं । बहुरि मनः ज्ञानकरि उपयुक्त होय है तब इन्द्रियज्ञान नांही उपजे हैं । भावाम
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