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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २१० जैन तत्त्व मीमांसा की कानजीका प्रत्येक वक्तव्य जैनागमके विरुद्ध है उसका आपने जैन तत्त्व मीमांसा में कहीं पर भी खंडन नहीं किया सिवाय मंडन | क्या ज्ञान इन्द्रियोंके द्वारा नहीं जानता यदि नहीं जानता है तो मतिज्ञानका विषय क्या है ? Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " इन्दियजं मदिणा जुग्गं जादि पुग्गलं दबं माणसाच पुणो सुयविषयं अक्खविषयं च स्वामिकार्तिके० गाथा १५८ 21 अर्थात् इन्द्रियनितें उपज्या जो मतिज्ञान सो अपने योग्य विषय जो पुद्गल द्रव्य ताकू' जाते है। जिस इन्द्रियका जैसा विषय है तैसे ही जान हैं । बहुरि मनसस्वधि ज्ञान है सो विषय कहिये शास्त्रका वचन सु 1 तांके अर्थकू' जाने हैं । बहुरि इन्द्रियकर जानिये ताक्रू' भी जाणे है । तथा इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति अनुक्रमसे होती है। इस वातको स्पष्ट करते हुये आचार्य कहते हैं। "पंचेंद्रियाणां मज्भे एगं च होदि उवजुतं । मखणाणे उवजुते इन्दियग्णां ग जाएदि || १५६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थात् पांचों ही इन्द्रिय कारे ज्ञान होय है सांतिनि में सू' एकेन्द्रिय द्वार करि ज्ञान उपयुक्त होय है। पाँचू ही एककाल उपयुक्त होय नाहीं । बहुरि मनः ज्ञानकरि उपयुक्त होय है तब इन्द्रियज्ञान नांही उपजे हैं । भावाम For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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