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समीक्षा
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यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा प्रादुर्भवति विनश्यति : सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति असदुपस्थितस्व कालमुत्पादयति चेति
इसका अर्थ देखिये
"देव और मनुष्यादिपर्याये तो बर्ती हैं उनका स्वसमय उपस्थित होता है और बीत जाता है इसलिये वे उत्पन्न होती हैं और नाशको प्राप्त होती है। तात्पर्य यह है कि देव और मनुष्य आदि पर्यायें अपने अपने स्वकाल के प्राप्त होने पर उत्पन्न होती हैं और स्वकाल के अतीत होने पर नष्ट होजातीं है । १६ ।
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" और जब यह जीवद्रव्यकी गौणता और पर्यायकी मुख्यतासे विक्षित होता है तब वह उपजता है और नाशको प्राप्त होता है जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् ( विद्यमान ) पर्यायसमूहको नष्ट करता है और जिसका स्वकाल उपस्थित है ऐसे असत् (अमान) पर्यायसमूहको उत्पन्न करता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है
सिद्धांत शास्त्रीजी उक्त कथनका (पंचास्तिकायका) ऐसा तात्पर्य निकालते हैं किन्तु पंचास्तिकाय के कथनका उक्त आशय नही है । आपने खींचातानी करके भानुमतिका कुनवा जोडनेवाली कहावत यहां पर चरितार्थ की है।
अर्थात् ग्रन्थकारका तो कथन इतना ही है कि देव मनुष्यादिपर्यायें क्रमवर्ति हैं अर्थात् वह एकके पीछे एक उत्पन्न होती हैं तो भी उसमें कालभेद नहीं है इसीलिये आचार्य कहते हैं कि "स्वरमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति " स्वसमयका अर्थ यहां एक समयका है एकसमय में ही उत्पाद व्यय होता है । स्वसमका दूसरा अर्थ वर्तमान पर्यायका जो समय है वह उस पर्याय
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