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भाव और प्रभाव परस्पर विरोधी होने पर भी दोनों गुण रहते
इस स्यावाद पद्धतिका आश्रय लेकर वर्णन करनेवाले बहुत कम लोग देखे जाते हैं । जो लोग अपने को जैन समझते हैं और तत्त्व चर्चा में प्रवीण समझे जाते हैं, वे भी इसके प्रयोग करने में चोखा खा जाते हैं। इसका कारण यह है कि-लोग स्वाद्वाद का 'है भी, नहीं भी है' ऐसा गलत अर्थ प्रायः समझते हैं।
पदार्थ में कौन सा गुण किस अपेक्षा से रहता है इस अपेक्षा बादको जो समझते हैं वे तो सही अर्थ में स्याद्वाद का प्रयोगकर अभीष्टार्थ पालेते हैं और जो इसको नहीं समझ पाते, वे विपरीत अर्थका श्रद्धान कर लेते हैं।
आज वल अनेक विवाद जो दि जैन समाजमें फैल रहे है उसमें यह अपेक्षा बादका अज्ञान भी कारण है। ___पं० फूलचंदजी मिद्धांत शास्त्री वन रस ने जैन तत्त्वमीमांसा नामकी पुस्तक कानजी मतकी पुष्टिमें लिखी है उसमें इस स्याद्वादका खूब ही दुरुपयोग किया है । इतना ही नहीं, इसमें उपचार अभूतार्थ आदि शब्दोंका अर्थ भी अन्यथा लगाकर तत्त्वमीभांसाया उपहास किया गया है। विद्वान् ब्रह्मचारी चांदमल जी चूडीवालने युक्ति और श्रागमके बल से पंडितजोकी मीमांसाकी ममीक्षा की है इसको पढने से लोगों के ज्ञान में समीचीनता
आवेगी । सोनगढका प्रचार विभाग अति उद्योगी है। आधुनिक जितने साधन उपलब्ध हैं, उन सबका उपयोग कर लेने में सिद्धहस्त है। यही कारण है कि-इन लोगोंके मतका प्रचार दिन पर दिन वढ रहा है दि० जैन समाजमें समीचीन दर्शन ज्ञान चारित्र की दिन पर दिन वृद्धि होती रहे और भ्रान्त धारणओंका निरसन होता रहे इसलिये यह पुस्तिका प्रकाशित की गई है। इसमें कानजी मतको आगम विरुद्ध सभी मान्यताओंका विवेचन विस्ता
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