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जैन तत्त्व मीमांसा की
उसमें उनके नवीन आयुका वन्ध होता है, सो भी किसीके त्रिभागीमें किसीके किसी त्रिभागीमें श्रायुका बन्ध होता है । तथा भोगभमियां मनुष्य तिर्यचोंकी नवीन आयुका नौमास वाकी रहनेपर आठ विभागीमें किसी एक त्रिभागीमें नवीन आयुका बन्ध होता है। सबको एकसा नियम नियतरूपसे नहीं है जिसका श्रकालमरण होता है उसके लिये त्रिभागीका नियम भिन्न प्रकार है। इसका कारण यह है कि जिसने ६६ वर्षकी आयुका वन्ध किया था किन्तु कारणवश उसकी आयुका अपकर्षण त्रिभागी पडनेके पहिलेही होगया ता उसके भोगोहुई आयुसे आधी या उस से कम आयु शेष रहनेपर ही अगदी आयुका वन्ध होता है किन्तु जिसने एक त्रिभागीकी आयु भोग ली अर्थात् ६६ वर्षकी आयुबाला ६६ वर्षकी आयु भोगचुका और परभयकी आयुका बन्ध करलिया है तो उसका अकाल मरण नहीं होगा । किन्तु जिसके परभवकी आयुका वन्ध नहीं हुआ है और यदि उसका अकाल मरण होता है तो भोगी हुई आयुसे आधी श्रायुसे कम आयु शेष रहनेपर नवीन आयुका वन्ध होगा ऐसा जैनागमका कहना है । षट् खडागम पुस्तक ६ पृष्ठ १७०
. उपरोक्त आगम प्रमाण कथनसे यह स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि क्रमनियमित पर्यायको माननेवाले आगम विरुद्ध बोलते हैं । क्रमनियमित पर्यायके मानने वालों के मतमें उपरोक्त अकालमृत्यु आदि कर्मोंका अपकर्षण उत्कर्षण और संक्रमण नहीं बनता । इसलिये कालअपेक्षा पंडितजीने सम्यक नियति की सिद्धि करनेकी चेष्टा की है वह असफल होचुकी । अर्थात् सम्यकनियतिकी वजाय मिथ्या अनियति प्रमाणित हो चुकी अतः जो आपने कालगत नियम बतलाये थे उनमें भी परिवर्तन होता है यह उपरोक्त कथन से अच्छी तरह सिद्ध हो चुका है।
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