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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समीक्षा ३१७ भाव अपेक्षा भी सब जीवोंके एकसे क्रमवद्ध परिणाम नहीं होते, कषायस्थान असंख्यात लोकप्रमाण है यह ठीक है कषायों के स्थान इतने ही हैं कम जादा नहीं है पर कषायोंका उदय तो क्रमबद्ध नहीं है अर्थात् ऐसा तो नहीं हो सकता कि कषायों के स्थान एक के बाद एक स्थान उदयमें आते हों। यदि ऐसाही मान लिया जाय तो असंख्यात लोक प्रमाण समय बीत जानेके बाद सर्व जीव निः कषाय हो जाने चाहिये क्योंकि कषायके स्थान श्रसंख्यात लोकप्रमाण ही हैं वह क्रमबद्ध उदय में आकर असंख्यात लोकप्रमाण काल में खतम हो जायंगे फिर तो सर्व जीव वीतराग क्यों नहीं बनेंगे ! इस हालत में असंख्यात लोकप्रमाण काल के बाद सब जीवोंके संसार ही खतम होजायेगा सो होता नहीं । सिद्धराशि के अनंतवें भाग तो अभव्यराशि जीव हैं उनसे अनन्तगुणे दूरानदूर भव्यराशि जीव हैं उनका कभी भी संसार खतम ही नहीं होगा । परन्तु कषायांका उदय क्रमबद्ध मान लिया जाय तो उनका भी संसार असंख्यात लोक प्रमाण कालके वाद खतम हो जायगा सो होता नहीं इसलिये परिणामों को क्रमवद्ध मानना सर्वथा आगम विरुद्ध है । संसारी जीवों के निमित्तानुसार कषायों के परिणाम तरह २ के वनते रहते हैं उनकी संख्या असंख्यात लोक प्रमाण है । इसी प्रकार लेश्याओंसे रंजित परिणामको समझ लेना चाहिये । अधः करण के परिणाम सब जोवोंके समान नहीं होते इस बातको आप भी मानते हैं। अतः परिणामों के कार्य श्रानयत रूपसे होते हैं अर्थात् परिणाम के अनुसार ही कमकी स्थिति और अनुभाग तन्ध होता है और गति भी परिणामोंके अनुसार मिलती है । इसीलिये आचार्य कहते हैं कि परिणामों की सम्हाल हरसमय रक्खों श्रन्यथा संसार में दुख भोगना पड़ेगा । यदि परिणामों का परि For Private And Personal Use Only
SR No.010315
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Chudiwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year1962
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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